Trending

    Move to Jagran APP
    pixelcheck
    विज्ञापन हटाएं सिर्फ खबर पढ़ें

    Bihar Chunav: चला गया बैलगाड़ी और साइकिल का जमाना, अब सोशल मीडिया और रणनीति ही सबकुछ

    By manoj kumar raiEdited By: Piyush Pandey
    Updated: Thu, 09 Oct 2025 02:29 PM (IST)

    Bihar Election 2025: अब चुनाव पहले जैसे नहीं रहे। प्रचार के तरीके, नेताओं की भाषा, और मतदाताओं का नजरिया बदल गया है। कभी चुनाव जनसंपर्क का उत्सव था, अब सोशल मीडिया और रणनीति का मैदान बन गया है। पहले लोग प्रत्याशी को देखकर वोट देते थे, अब पार्टी के नाम को महत्व देते हैं। लोकतंत्र में संवाद और सौहार्द की भावना जरूरी है, वरना असली मुद्दे पीछे छूट जाएंगे।

    Hero Image

    प्रस्तुति के लिए इस्तेमाल की गई तस्वीर। (फाइल फोटो)

    संवाद सूत्र, कुचायकोट (गोपालगंज)। अब चुनाव का रंग-ढंग पहले जैसा नहीं रहा। वक्त के साथ सब कुछ बदल गया है, प्रचार की शैली, नेताओं की भाषा और मतदाताओं का नजरिया भी। कभी चुनाव जनसंपर्क और संवाद का उत्सव हुआ करता था, अब वह सोशल मीडिया और रणनीति का मैदान बन गया है।

    विज्ञापन हटाएं सिर्फ खबर पढ़ें

    पहले प्रत्याशी जनसंपर्क को ज्यादा तरजीह देते थे। गांव-गांव साइकिल या बैलगाड़ी से घूमते, लोगों से हाथ मिलाते और उनकी खुशहाली का हाल पूछते। भाषणों में मुहावरों, किस्सों और लोककथाओं के सहारे सहजता से अपनी बात रखते।

    दूसरे दल की नीतियों की आलोचना जरूर होती थी, मगर उसमें मर्यादा और संयम झलकता था। व्यक्तिगत हमले नहीं, बल्कि विचारों की टक्कर होती थी।

    भोजपुरी में प्रचार

    कुचायकोट प्रखंड के बरनैया राजाराम गांव के 85 वर्षीय सेवानिवृत्त प्रधानाध्यापक रामेश्वर प्रधान बताते हैं कि पहले प्रत्याशी गांव-टोला तक पहुंचने के लिए घंटों पैदल या साइकिल से चलते थे। प्रचार गीत भोजपुरी में गाए जाते थे और माहौल उत्सव जैसा होता था।

    लोग दल से ज्यादा व्यक्ति के चरित्र और सेवा भावना को महत्व देते थे। प्रतिद्वंदी दलों के प्रत्याशियों और समर्थकों ने व्यक्तिगत कटुता कम होती थी। समर्थक और प्रत्याशी विचारधारा और दलीय निष्ठा के आधार पर अपनी बात से मतदाताओं को अपने तरफ का प्रयास करते थे।

    एक-दूसरे का पूछते थे हाल-चाल

    वहीं, भठवां रूप गांव के सेवानिवृत्त शिक्षक और कवि सुरेंद्र मिश्र कहते हैं कि तब प्रचार में शामिल कार्यकर्ता एक-दूसरे से मिलते तो हाल-चाल पूछते, अब नारेबाजी और झड़प पर उतारू हो जाते हैं। आपसी कटुता चुनाव ओर भी बढ़ जाती है। पहले विरोधी दल के समर्थक भी एक साथ बैठकर चाय पी लेते थे, आज ऐसी तस्वीरें दुर्लभ हैं।

    दरअसल, अब चुनाव सेवा और सिद्धांत से ज्यादा रणनीति और सोशल मीडिया प्रबंधन पर टिका दिखता है। प्रचार का केंद्र मतदाता की भावनाओं से हटकर प्रचार के ‘मैनेजमेंट’ पर पहुंच गया है। पहले लोग प्रत्याशी को देखकर वोट देते थे, अब पार्टी के नाम और प्रतीक को ज्यादा महत्व देते हैं।

    वक्त का तकाजा है कि लोकतंत्र की यह प्रतिस्पर्धा फिर से संवाद, सौहार्द और सेवा की भावना से भरे। वरना यह जनमत का उत्सव धीरे-धीरे एक शोरगुल भरी जंग में बदल जाएगा, जिसमें असली मुद्दे कहीं पीछे छूट जाएंगे।