Gayaji News: प्रेतशिला वेदी पर सत्तू उड़ाते पिंडदानियों का उमड़ा जनसैलाब, श्रद्धालुओं की आस्था का अनोखा दृश्य
गयाजी में पितृपक्ष मेला के तीसरे दिन प्रेतशिला पर्वत पर पिंडदानियों का सैलाब उमड़ा। देश-विदेश से आए श्रद्धालुओं ने अपने पितरों की मुक्ति के लिए तर्पण किया। प्राचीन मान्यताओं के अनुसार यहां पिंडदान करने से अकाल मृत्यु से पीड़ित आत्माओं को शांति मिलती है। प्रशासन ने सुदृढ़ व्यवस्था की है और बुजुर्गों के लिए डोली की व्यवस्था है।

सुभाष कुमार, गयाजी। पितृपक्ष मेला के तीसरे दिन सोमवार को गयाजी से लगभग 10 किलोमीटर दूर, एक हजार फीट ऊंचे प्रेतशिला पर्वत पर स्थित प्रेतशिला वेदी पर श्रद्धालुओं का सैलाब उमड़ पड़ा। देश-विदेश से आए हजारों पिंडदानी यहां अपने पितरों के मोक्ष की कामना के साथ तर्पण और पिंडदान करने पहुंचे।
श्रद्धा, भक्ति और पारंपरिक रीति-नीति के अनुपम संगम का दृश्य प्रेतशिला पर देखने को मिला। सुबह से ही श्रद्धालुओं का आना शुरू हो गया था।
प्राचीन मान्यताओं के अनुसार, प्रेतशिला वेदी पर पिंडदान करने से अकाल मृत्यु को प्राप्त पितरों को शांति मिलती है और उन्हें मोक्ष की प्राप्ति होती है। इसी आस्था के साथ विभिन्न राज्यों से आए हजारों श्रद्धालु यहां पहुंचे। असम के गुवाहाटी से आए मित्तल परिवार के करीब 200 सदस्य अपने 70 पितरों के लिए 17 दिनी पिंडदान कर रहे हैं।
इसी तरह, ओडिशा के बरगढ़ जिले से श्यामपुरिया परिवार और छत्तीसगढ़ के नैला गजरिया परिवार के 40 सदस्यों ने भी तर्पण किया। वहीं, गयाजी के कपड़ा व्यवसायी डालमिया परिवार ने भी 17 दिनी पिंडदान की शुरुआत कर दी है।
तीसरे दिन प्रेतशिला में परिवार की सदस्य ऋतु डालमिया ने बताया कि शिव प्रकाश डालमिया, शिवचरण डालमिया, शिव कैलाश डालमिया, शिव अरुण डालमिया के अलावे परिवार के कई लोग मिलकर अपने तीन पीढ़ी के पूर्वजों और माता-पिता एवं ससुराल पक्ष के पूर्वजों का पिंडदान कर रहे हैं। तीसरे दिन प्रेतशीला पर्वत के पास ब्रह्मसरोवर के पास तर्पण किया गया।
इसी क्रम में मध्य प्रदेश के इंदौर निवासी दीपक सिंह ठाकुर के एकल परिवार ने भी अपने पूर्वजों का पिंडदान किया। वहीं, छत्तीसगढ़ के नैला गजरिया परिवार एवं छत्तीसगढ़ के रायपुर सिंघल परिवार ने गयाजी पहुंचकर अपने पितरों का तर्पण किया।
तीन प्रेतराज, ब्रह्मा के चरणचिन्ह और मोक्ष की गाथा प्रेतशिला की पौराणिक महिमा
गयाजी गजाधर धामी पांडा समिति के सदस्य शिवा कुमार पांडे ने कहा कि प्रेतशिला वेदी की मान्यता प्राचीन ग्रंथों से जुड़ी हुई है। वायु पुराण में वर्णित इस स्थान पर भगवान ब्रह्मा ने यज्ञ किया था। यहां स्थित एक तालाब, जिसे आज ब्रह्मसरोवर कहा जाता है, पहले घी का तालाब कहा जाता था।
प्राचीन मान्यता के अनुसार, ब्रह्मा के चरणचिह्न के साथ यहां तीन सोने की लकीरें हैं, जो तीन प्रेतराज-राजस्य, तामस और सार्थ-का प्रतीक मानी जाती हैं।
पिंडदान से पहले श्रद्धालु ब्रह्मसरोवर में स्नान कर तर्पण करते हैं। इसके बाद 676 सीढ़ियों की कठिन चढ़ाई कर वे प्रेतशिला वेदी तक पहुंचते हैं। यहां पिंडदान करने और पर्वत की परिक्रमा करने का विधान है।
विशेष रूप से अकाल मृत्यु-जैसे आत्महत्या, दुर्घटना, फांसी या विष सेवन आदि- से मारे गए पितरों के लिए यह वेदी मोक्षदायिनी मानी जाती है। प्राचीन परंपरा के अनुसार, प्रेतशिला पर्वत पर सत्तू उड़ाना भी एक प्रतीकात्मक क्रिया है, जो आत्मा की मुक्ति और भूत-प्रेत बाधा निवारण का संकेत देती है।
बेहतर व्यवस्था से श्रद्धालु गदगद, प्रशासन की तारीफ करते नहीं थक रहे तीर्थयात्री:
प्रेतशिला पर उमड़ी भीड़ को देखते हुए जिला प्रशासन ने इस बार बेहद सुदृढ़ व्यवस्था की है। चंदौती लाइन आर्डर डीएसपी रवि प्रकाश स्वयं ट्रैफिक और सुरक्षा व्यवस्था की निरंतर निगरानी कर रहे हैं। जगह-जगह पुलिस कैंप और अनाउंसमेंट सिस्टम लगाया गया है, जिससे भटके हुए तीर्थयात्री अपने परिजनों से पुनः मिल पा रहे हैं।
छत्तीसगढ़ के रायपुर से आए अशोक सिंघल ने कहा कि इतनी सुव्यवस्थित और भक्तिपूर्ण व्यवस्था कहीं और नहीं देखी।
धनबाद के विक्रांत अग्रवाल और महेश अग्रवाल ने भी प्रशासन की तारीफ करते हुए कहा कि गया प्रशासन और बिहार सरकार का कार्य अनुकरणीय है। श्रद्धालुओं की सुविधा के लिए पार्किंग, पेयजल, छाया स्थल, चिकित्सा सुविधा आदि का प्रबंध किया गया है। इससे पिंडदानियों को किसी प्रकार की असुविधा नहीं हो रही है। हर ओर सहजता, सुरक्षा और सेवा का अनुभव हो रहा है।
डोली-खटोली बनी बुजुर्ग तीर्थयात्रियों का सहारा, मांझी परिवार निभा रहे पीढ़ियों पुरानी परंपरा
प्रेतशिला पर्वत पर चढ़ाई के लिए जहां युवा श्रद्धालु 676 सीढ़ियां पैदल चढ़ते हैं, वहीं बुजुर्ग, असमर्थ और बीमार तीर्थयात्रियों के लिए डोली-खटोली सेवा उपलब्ध है। यह सेवा मांझी समुदाय के लोगों द्वारा पीढ़ियों से दी जा रही है। कोरमा, चंदा, शेरपुर, नियाजीपुर जैसे गांवों के लोग इस सेवा में संलग्न हैं। प्रत्येक डोली को दो मजदूर कंधों पर उठाकर पर्वत की चोटी तक ले जाते हैं।
इस सेवा का शुल्क तीर्थयात्री के वजन और दूरी के अनुसार 500 से 1200 रुपये तक होता है। यदि किसी की वजन 120 किलो से अधिक हो तो शुल्क बढ़ जाता है। डोली मजदूरों में टूनी, राजू, संजय और उपेंद्र मांझी जैसे लोग अपने पुश्तैनी काम को श्रद्धा और सम्मान से कर रहे हैं। इनका कहना है कि हमारे पूर्वजों ने जैसे श्रद्धालुओं की सेवा की, हम भी वही कर रहे हैं। पितृपक्ष मेला में इस सेवा से इन परिवारों को अच्छी आय भी हो रही है।
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