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    जंगल में लोकतंत्र की अनसुनी पुकार, मुंडा आदिवासी वोट देते हैं पर अब तक विकास नहीं पहुंचा

    Updated: Tue, 04 Nov 2025 12:05 PM (IST)

    गया जिले के कठौतिया केवाल पंचायत के जंगलों में मुंडा जनजाति आज भी अपनी परंपरा के अनुसार जीवन जी रही है। वे जल, जंगल और जमीन को भगवान मानते हैं, लेकिन सरकारी सुविधाओं से वंचित हैं। लगभग 400 की आबादी वाला यह समाज आत्मनिर्भर है, पर जमीन न होने से राशन कार्ड और आधार कार्ड जैसी सुविधाओं से वंचित है। वे लोकतंत्र में विश्वास रखते हैं और हर चुनाव में मतदान करते हैं, फिर भी विकास से दूर हैं।

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    जंगल में लोकतंत्र की अनसुनी पुकार

    हिमांशु गौतम, फतेहपुर (गया)। विकास की दौड़ में जहां गांव-शहर कंक्रीट में ढलते जा रहे हैं, वहीं कठौतिया केवाल पंचायत के जंगलों में मुंडा जनजाति आज भी अपनी परंपरा और प्रकृति के संग आत्मनिर्भर जीवन जी रही है। यह वह समाज है जो 'जल, जंगल और जमीन' को भगवान मानता है, लेकिन सरकार की सुविधाओं से अब भी कोसों दूर है।

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    झारखंड सीमा से सटे इस इलाके में करीब सौ से अधिक मुंडा परिवार रहते हैं। करीब 400 की आबादी वाला यह समाज न केवल मेहनती है बल्कि स्वाभिमान से जीना भी जानता है। अपनी जमीन न होने के कारण इन्हें न राशन कार्ड मिला, न आधार कार्ड, न आवास। बिहार में प्रमाण पत्र के अभाव में बच्चों का नामांकन सरकारी स्कूलों में नहीं हो पाता। इसके बावजूद बच्चों को पढ़ाने की जिद इनकी शिक्षा के प्रति सजगता दिखाती है।

    जंगल में खुद बनाया जीवन का ढांचा 

    मुंडा परिवारों ने खुद कुएं खोदकर पानी की व्यवस्था की है। खेती के लिए बंजर जमीन को उपजाऊ बनाया। बिजली नहीं मिली तो सोलर लाइट का सहारा लिया। मोबाइल नेटवर्क के लिए पेड़ पर चढ़ना इनकी दिनचर्या है। इनके घर मिट्टी और खपड़ा से बने हैं। सब कुछ अपने हाथों से लोकल वोकल।

    मुंडा जाति का मानना है — “जंगल ही भगवान है।” पेड़ों और जानवरों को नुकसान पहुंचाना इनके लिए पाप है। पशुपालन करते हैं, मगर पशु का दूध या मांस नहीं खाते। ये सत्य, अहिंसा और प्रकृति-पूजन के अनुयायी हैं।

    सरकारी योजनाओं से वंचित, फिर भी लोकतंत्र पर विश्वास

    2011 में पहली बार इन्हें वोटर आई कार्ड मिला। आज भी राशन कार्ड और आधार कार्ड नहीं बना। फिर भी हर चुनाव में ये मतदान करते हैं, क्योंकि लोकतंत्र में इन्हें भरोसा है। बीडीओ शशि भूषण साहू ने बताया कि फिलहाल जंगल में रहने वाले इन आदिवासियों के लिए कोई योजना नहीं है, पर वन विभाग से अनुमति लेकर पेयजल सुविधा उपलब्ध कराने का प्रयास किया जाएगा।

    स्वयं का नेतृत्व, स्वयं का समाज  

    मुंडा समाज अपनी व्यवस्था खुद चलाता है। पंचायत में विवाद निपटाते हैं, थाना नहीं जाते। हर माह समाज की कमेटी प्रत्येक घर से 10 रुपये लेती है, जिसका उपयोग सामूहिक जरूरतों में होता है। शिक्षा प्राप्त युवा ही समाज का नेतृत्व करते हैं।

    क्या कहते हैं मुंडा लोग

    दिवेदी मुंडा, करम मुंडा और राम मुंडा बताते हैं कि सरकारी अधिकारी जंगल में विकास की जगह बाधाएं खड़ी करते हैं। कुआं खुदवाने में भी वन विभाग रोक लगाता है। फिर भी वे आत्मनिर्भर हैं और “मंगलमय जंगल जीवन” में खुश हैं।

    आखिर सवाल यह कि जब लोकतंत्र के इस सुदूर प्रहरी ने कभी मतदान से मुंह नहीं मोड़ा, तो सरकार ने अब तक मुंह क्यों फेर रखा है?

    क्या इनका वोट सिर्फ गिनती का हिस्सा भर है या लोकतंत्र की सच्ची आत्मा, जिसे अब पहचानने की जरूरत है। यह मुद्दा चुनावी वादों में क्यों नहीं गूंजता। यही सवाल अब जंगल की खामोशी में गूंज रहा है।