Trending

    Move to Jagran APP
    pixelcheck
    विज्ञापन हटाएं सिर्फ खबर पढ़ें

    बोधिवृक्ष: उखड़ा और हर बार खड़ा हुआ ज्ञान का यह पीपल

    By Ravi RanjanEdited By:
    Updated: Wed, 17 Jan 2018 11:16 PM (IST)

    बिहार के बोधगया स्थित बोधिवृक्ष बार-बार उखड़ा और ज्ञान की छांव लिए फिर खड़ा हुआ। आम व्यक्ति हो या कोई राष्ट्राध्यक्ष, इसकी छांव में सुकून के दो पल का अहसास भर उसे खिंच ही लाती है।

    बोधिवृक्ष: उखड़ा और हर बार खड़ा हुआ ज्ञान का यह पीपल

    गया [अश्विनी]। पीपल हजारों हैं। उसकी छांव भी, पर इस पीपल में कुछ खास कि सात समंदर पार से विदेशी मेहमान भी आते हैं। यह बार-बार उखड़ा और ज्ञान की छांव लिए फिर खड़ा हुआ। चाहे आम व्यक्ति हो या कोई राष्ट्राध्यक्ष, इस छांव में सुकून के दो पल का अहसास भर उसे खिंच ही लाता है उस धरती पर, जिसे दुनिया बोधगया के नाम से जानती है। पर्यटन सीजन में मेहमान आने लगे हैं।

    करीब 2300 वर्षों के सफर में उस पीपल की पीढ़ी आज भी दे रही संदेश, प्रेम और शांति का। आरसी प्रसाद सिंह की दो पंक्तियां जैसे इसी वास्ते हों-

    विज्ञापन हटाएं सिर्फ खबर पढ़ें

    'पीपल की ऊंची डाली पर बैठी चिडिय़ा गाती है। तुम्हें ज्ञात अपनी बोली में क्या संदेश सुनाती है?'

    बस! दो पल बैठें उस छांव में, जिसके नीचे ज्ञान पाकर राजकुमार सिद्धार्थ बुद्ध बन गए थे। बोधिवृक्ष!

    सफर इतिहास के आईने में

    मगध विश्वविद्यालय के बौद्ध अध्ययन केंद्र के प्रोफेसर डॉ. कैलाश प्रसाद बताते हैं कि उपलब्ध साक्ष्य के मुताबिक मौजूदा बोधिवृक्ष छठी पीढ़ी है। कभी इसे कटवाया गया तो कभी आपदा का शिकार हुआ, पर कोपलें फूटती रहीं और ज्ञान का प्रतीक यह वृक्ष आज भी खड़ा है।

    जब काट दिया गया बोधिवृक्ष को

    कलिंग युद्ध के बाद सम्राट अशोक की बौद्ध धर्म के प्रति आसक्ति देख उनकी पत्नी तिस्रक्षिता ने उस ज्ञान प्रतीक को ही कटवा दिया। ऐतिहासिक दस्तावेज यह घटना 272-262 ईसा पूर्व की बताते हैं। आहत सम्राट ने अपने पुत्र महेन्द्र और पुत्री संघमित्रा को उस बोधिवृक्ष की शाखा लेकर श्रीलंका भेजा। वहां अनुराधापुरम में उसे रोपा गया। डॉ. कैलाश बताते हैं कि करीब 2300 साल का वह वृक्ष आज भी है और दुनिया के सबसे पुराने वृक्ष में शुमार है। उन्होंने उसे जाकर देखा है।

    शशांक से कर्निंघम तक  

    इधर, जिस बोधिवृक्ष को काट दिया गया था उसकी नई जड़ें निकल आईं। आस्था के केंद्र में हरियाली फैल गई थी। बंगाल के तत्कालीन शासक शशांक ने 601-620 ईसवी में बुद्धत्व के प्रतीक इस वृक्ष को बौद्ध अस्तित्व खत्म कराने को कटवा दिया, पर जड़ें निकलती गईं। एक शासक ने इसे फिर कटवाया। वृक्ष पनपा और आंधी में उखड़ गया, फिर पनपा।

    1876 में लार्ड कर्निंघम ने इस स्थल की खोदाई कराई। यह एक बार फिर उखड़ गया। कर्निंघम 1881 में अनुराधापुरम से पीपल की शाखा लेकर आए और इसे फिर से लगाया। इस तरह पीढिय़ां आगे बढ़ती रहीं। मौजूदा बोधिवृक्ष 136 साल का है। कर्निंघम ने महाबोधि टेंपल अंडर बोधि ट्री नामक पुस्तक में इसके संबंध में लिखा भी है।

    देखरेख का विशेष प्रबंध

    इस पवित्र वृक्ष की देखरेख की जवाबदेही वन अनुसंधान संस्थान, देहरादून को दी गई है। वहीं के वैज्ञानिक इसकी देखभाल करते हैं। अभी हाल ही में डॉ. एनएसके हर्ष व डॉ. सुभाष नौटियाल ने इसका उपचार किया था, जिसके बाद यह पूर्णतया स्वस्थ है। इस वृक्ष की छांव में बैठ सकते हैं, पर इसे छूना मना है। जिसने राजकुमार सिद्धार्थ को भगवान बुद्ध बनाया उसकी छांव में बैठने का अहसास क्या होता है, इसकी अनुभूति यहां आकर ही हो सकती है।