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    गयासुर के वरदान से जुड़ी है पिंडदान का प्रथा, गया जी समेत 8 जगहों पर होता है पितरो का तर्पण

    Updated: Wed, 03 Sep 2025 01:18 PM (IST)

    गयाजी उत्तर भारत की सांस्कृतिक नगरी पितृ तीर्थ के रूप में पूजित है। यहां फल्गु नदी के जल से तर्पण कर पुत्र पितरों के लिए स्वर्ग का मार्ग प्रशस्त करते हैं। गयासुर के वरदान के कारण यहां पिंडदान का विशेष महत्व है। पितृपक्ष में भारत के कोने-कोने से लोग आकर अपने पूर्वजों को जलांजलि देते हैं।

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    गयासुर के वरदान से जुड़ी है पिंडदान का प्रथा

    कमल नयन, गयाजी। अखंड भारत के परिदृश्य की कल्पना को साकार करते देखना है तो आइए, गयाजी। उत्तर भारत की सांस्कृतिक नगरी धर्म क्षेत्र के रूप में पितृ तीर्थ गयाजी कालांतर से ही पूजित है।

    यहां भगवान विष्णु के पदचिह्न को नमन और फल्गु के पवित्र जल से तर्पण कर पुत्र अपने पितरों के लिए स्वर्ग का मार्ग प्रशस्त करते हैं। इसी मान्यता के तहत गयाजी में पिंडदान के कर्मकांड की सर्वश्रेष्ठ मान्यता है।

    वैसे तो भारत के आठ पिंड स्थलों में कर्मकांड की धार्मिक मान्यता है। इनमें गंगातट पर स्थित हरिद्वार का नारायणी शिला, यमुना नदी तट पर अवस्थित मथुरा, क्षिप्रा नदी के तट पर अवस्थित उज्जैन मंदिर, गंगा यमुना सरस्वती का संगम स्थल प्रयागराज, सरयू नदी के तट पर अयोध्याजी, महानदी और भार्गवी नदी के तट पर स्थित जगन्नाथपुरी, गंगा तट पर स्थित वाराणसी और फल्गु नदी के तट पर अवस्थित गयाजी में पिंडदान सर्वश्रेष्ठ है।

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    गयासुर को मिला था वरदान 

    गरुड़ पुराण के अनुसार भगवान विष्णु की कठोर तपस्या के बल पर गयासुर ने यह वर प्राप्त कर लिया था कि उसका शरीर इतना पवित्र हो जाए कि उसके स्पर्श और दर्शन मात्र से प्राणी को मोक्ष की प्राप्ति हो जाए।

    इन्हीं मान्यताओं और धार्मिक श्रद्धा के रूप में पितरों के प्रति अपने कर्तव्य का निर्वहन गयाजी में करते दिखता है। सनातन धर्म के प्रति हर मानने वाला अपने-अपने पूर्वजों का पूरा ख्याल रखते हैं। इसी संदर्भ में वर्षों बरस से गयाजी में तर्पण और पिंडदान की परंपरा जो चली आ रही है, वह आज और विकसित हो गई।

    देश के हर कोने से श्रद्धावान पुत्र अपने पूर्वजों को तर्पण और पिंडदान करने के लिए एक बार गयाजी आना खुद को सौभाग्य मान मानता है। एक पखवारे का यह प्रचलित श्रद्धा का पर्व अब युवाओं में और भी विश्वास के साथ दिखता है।

    पूरे भारत से आते हैं श्रद्धालु 

    भारत के कोने-कोने से लाखों लोग पितृपक्ष में गयाजी आते हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि संपूर्ण भारत की उपस्थिति गयाजी में हो गई हो। फल्गु नदी के तट पर अमीर-गरीब, ऊंच-नीच सभी श्रेणी के श्रद्धावान पुत्र अपने पितरों को जलांजलि एकसाथ देते हैं। मानो भेदभाव को भुलाकर यहां सभी इस भाव से मिलते हैं कि पूरा भारत एक वृहद परिवार का सदस्य है।

    गयाजी में पिंडदान श्राद्ध कर्म और तर्पण की आस्था के पीछे गयासुर की कहानी जुड़ी है। वायु पुराण, स्कंद पुराण, अग्नि पुराण, नारद पुराण आदि धर्मग्रंथों में गयासुर की कहानी का उल्लेख है।

    किंवदंती है कि गयासुर ने कठिन तपस्या कर भगवान विष्णु को प्रसन्न कर लिया। भगवान से वरदान मांग लिया कि जो उसको स्पर्श करेगा वह सब पापों से दूर हो जाएगा।

    गयाजी की पंचकोस में कर्मकांड का यह विधान फैला है। 54 पिंडवेदियों पर तर्पण और पिंड का अर्पण किया जाता है। फल्गु के पवित्र जल से यह पर्व की शुरूआत तर्पण के माध्यम से होता है और पूरे पखवारे तक यह क्रम विभिन्न पिंडवेदियों पर चलता है।

    इसका समापन अमावस्या तिथि को अक्षयवट वृक्ष के नीचे तीर्थपुरोहित गयापाल पंडा द्वारा श्रद्धालुओं को सुफल (आशीर्वाद) देने के साथ समाप्त होता है। इन पंद्रह दिनों में गयाजी एक भारत दिखता है। 

    विदेशों से भी आते हैं श्रद्धालु 

    अखंड भारत के दिव्य धार्मिक समागम में अब विदेशों में रहने वाले सनातन धर्मियों ने भी अपनी श्रद्धा देने में जुटे हैं। वाराणसी के रहने वाले लोकनाथ गौड़ रूस में संस्था चलाते हैं। जहां से प्रति वर्ष कई दर्जन विदेशी श्रद्धालु महिला-पुरुष गयाजी आकर अपने-अपने पितरों को तर्पण और पिंडदान करते हैं। धीरे-धीरे इनकी संख्या में भी बढ़ाेतरी होती है।

    एक पखवारे के इस मेले में प्रतिवर्ष लगभग दस लाख से ऊपर श्रद्धालु गयाजी आते हैं। गयाजी की अर्थव्यवस्था को मजबूती मिलता है। गया और बोधगया के होटल इन दिनों भरे रहते हैं। आवासन से लेकर परिभ्रमण तक का कार्य गया के लोगों के द्वारा सहूलियत से कराया जाता है। पूरा मेला जिला प्रशासन के नियंत्रण में संपन्न होता है।

    तीर्थ पुरोहित गयापाल पंडा पितृ तीर्थ गयाजी के कर्मकांड के पूर्ण साक्षी गयापाल पंडा होते हैं। पुराने गयाजी के एक भाग में उनका निवास स्थान है। विष्णुपद मंदिर की व्यवस्था इन्हीं के हाथ में होती है। गयाजी करने वाले श्रद्धालु पुत्र गयापाल पंडा के आशीर्वाद के बाद कर्मकांड शुरू करते हैं और सुफल के साथ इसका समापन होता है। 

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