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    Gaya News: कभी डोली पर बीमार तो कभी ट्रैक्टर पर गर्भवती, सड़क अभाव में रोज दम तोड़ती जिंदगियां

    Updated: Sun, 17 Aug 2025 04:23 PM (IST)

    गया जिले के भलुआ पंचायत के पिपराही और हरनाही गांव में सड़क और स्वास्थ्य सेवाओं की हालत खस्ताहाल है। मरीजों को खटोले से अस्पताल ले जाना पड़ता है और प्रसव के दौरान नवजात की मौत हो जाती है। वन विभाग की अनुमति न मिलने से सड़क का निर्माण अटका हुआ है जिससे ग्रामीणों को भारी परेशानी का सामना करना पड़ रहा है।

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    सड़क अभाव में रोज दम तोड़ती जिंदगियां

    अमित कुमार सिंह, बाराचट्टी (गया)। बिहार-झारखंड की सीमा से सटे गया जिले के भलुआ पंचायत के पिपराही और हरनाही गांव आज भी बुनियादी सुविधाओं से महरूम हैं।

    यहां सड़क और स्वास्थ्य सेवाओं की हालत इतनी जर्जर है कि बीमार को अस्पताल ले जाने के लिए कभी डोली (खटोला) का सहारा लेना पड़ता है, तो कभी ट्रैक्टर की उबड़-खाबड़ सवारी ही आखिरी उम्मीद बनती है, लेकिन कई बार यह मजबूरी जिंदगी पर भारी पड़ जाती है।

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    रविवार को पिपराही गांव की मुनिया देवी की हालत अचानक बिगड़ गई। कोई वाहन गांव तक नहीं पहुंच सकता, इसलिए पति बिनोद मांझी और भाई हरि मांझी ने गांव की महिला–पुरुषों के सहयोग से एक खटोला तैयार किया।

    इसके बाद दोनों ने कंधे पर टांग कर मुनिया देवी को अस्पताल ले जाने की यात्रा शुरू की। 15 किलोमीटर लंबा यह सफर मानो उनके धैर्य और मजबूरी की परीक्षा थी। पहले उन्हें पैदल चलकर एनएच 19 के 71 माइल तक लाना पड़ा, जहां ऑटो मिला। किसी तरह वे बराचट्टी स्थित सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र पहुंचे।

    सवाल उठता है कि 21वीं सदी में भी मरीज को अस्पताल ले जाने के लिए इंसानों को एंबुलेंस की जगह कंधा क्यों बनना पड़ता है? इसी तरह, हरनाही गांव में मोनू भोक्ता की पत्नी सोनी देवी आठ महीने की गर्भवती थीं। अचानक प्रसव पीड़ा शुरू हुई तो स्वजन ट्रैक्टर पर बैठाकर अस्पताल ले जाने लगे, लेकिन टूटी-फूटी सड़क ने हालत और बिगाड़ दी।

    रास्ते में ही प्रसव हो गया। सोनी देवी तो किसी तरह बच गईं, लेकिन नवजात की सांसें कभी न चल सकीं। मोनू भोक्ता का कराहना आज भी गूंज रहा है पत्नी तो बच गई, लेकिन बच्चा नहीं रहा। सड़क ने मेरी खुशियां छीन लीं।

    वन क्षेत्र बना विकास का दुश्मन

    इन दोनों गांवों तक पहुंचने का मुख्य रास्ता वन क्षेत्र से होकर गुजरता है। वन विभाग अनुमति नहीं देता, इसलिए हर साल निविदा निकलने के बावजूद सड़क निर्माण अधर में रह जाता है।

    नतीजा,गांव तक न एंबुलेंस पहुंच पाती है, न कोई गाड़ी। बरसात में तो ट्रैक्टर और बाइक तक धंस जाते हैं। ग्रामीण बताते हैं कि सरकार पैसा भेजती है, लेकिन वन विभाग अड़ंगा डाल देता है। हम लोग नरक जैसा जीवन जीने को मजबूर हैं।

    बीमार न पड़ने की दुआ करते हैं ग्रामीण

    गांव की काजल देवी कहती हैं कि बीमार को खटोले पर उठाकर ले जाना पड़ता है। दो घंटे लग जाते हैं अस्पताल पहुंचने में। तब तक हालत बिगड़ जाती है। मुनिया देवी भी कहती हैं कि कभी बच्चा मर जाता है, कभी मां।

    कई बार दोनों ही नहीं बच पाते। दशकों से यह दर्द झेल रहे हैं। करीब 15 किलोमीटर लंबा यह अधूरा रास्ता 15 गांवों और हजारों की आबादी को जोड़ता है। लेकिन सड़क न होने के कारण हर घर चिंता में डूबा रहता है, कभी प्रसव पीड़ा, कभी हादसा या कभी गंभीर बीमारी।

    यहां बीमार पड़ना मौत को न्योता देने जैसा है। आज भी ग्रामीणों की सबसे बड़ी मांग वही है हमें सड़क चाहिए। क्योंकि जब तक सड़क नहीं बनेगी, तब तक जिंदगी इसी तरह मौत के कंधे पर सवार होकर चलती रहेगी।