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    Aurangabad Massacre: 33 वर्षों के बाद भी नहीं भरे हैं पीपल के जख्‍म, कर दी गई थी 57 लोगों की हत्‍या

    By Vyas ChandraEdited By:
    Updated: Sun, 31 Jan 2021 12:44 PM (IST)

    औरंगाबाद जिले के दलेलचक बघौरा नरसंहार की यादें आज भी लोगों की जेहन में है। गांव से लोग पलायन कर चुके हैं। कुछ परिवार ही हैं। 27 मई 1987 की रात यहां के 57 महिला-पुरुष एवं बच्‍चों की हत्‍या कर दी गई थी।

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    57 लोगों की हत्‍या का गवाह है यह पीपल का पेड। जागरण

     

    शुभम कुमार सिंह, औरंगाबाद।  दलेलचक-बघौरा नरसंहार। 27 मई 1987 की काली रात। 33 वर्ष पहले की वह याद आज भी लोगों के जेहन से निकली नहीं है। हर साल जब मई महीने की 27 तारीख आती है तो यादें ताजा हो जाती हैं। उनकी आंखों के सामने 33 साल पहले हुए नरसंहार की तस्वीरें घूमने लगती हैं। बिहार के बड़े नरसंहारों की लंबी फेहरिस्त में दलेलचक-बघौरा का नाम प्रमुख है। यहां एक ही रात में एक जाति विशेष के 57 पुरुषों, महिलाओं व बच्चों की नृशंस हत्या कर दी गई थी। माओवादी कम्युनिस्ट सेंटर ने इस नरसंहार की जिम्मेदारी ली थी।

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     ढाई वर्ष के बच्‍चे से लेकर 105 वर्ष की वृद्धा तक का रेत दिया था गला

    औरंगाबाद जिले के मदनपुर थाना क्षेत्र के दलेलचक और बघौरा गांव में 27 मई की रात 57 लोगों की हत्‍या कर दी गई थी। ढ़ाई साल के मासूम से लेकर 105 साल की वृद्ध महिला तक की हत्या कर दी गई थी। स्थानीय लोगों की माने तो शाम सात बजे पांच से सात सौ की संख्या में हथियार के साथ पहुंचे उग्रवादियों ने घटना को अंजाम दिया था। बुजुर्गों की माने तो दलेलचक और बघौरा में खूनी लड़ाई की एक कड़ी थी। इसकी प्रतिक्रिया में छेछानी गांव को जला दिया गया था। इससे वहां सात लोग मारे गए थे। इसी तरह सात के बदले 11 का जवाब इस गांव में दिया गया था। इसके बाद सीताथापा पहाड़ पर कुछ लोगों ने बैठक की। उसमें तीन गांवों को जलाने की योजना बनी थी। 27 मई 2987 शुक्रवार की शाम सात बजे दलेलचक और बघौरा गांव में आगजनी करते हुए ग्रामीणों के हाथ-पांव बांध कर मैदान में उनका सिर धड़ से अलग कर दिया गया। कुछ लोगों को जिंदा भी जला दिया गया। प्रत्याक्षदर्शियों की माने तो इस घटना को एक जाति विशेष के लोगों ने अंजाम दिया था।

    (सूना पड़ा घर। )

    पीपल के वृक्ष पर अब भी हैं निशान

    बघौरा गांव में जिस पीपल के वृक्ष के नीचे लोगों को काट दिया गया था वहां आज भी उस नरसंहार के निशान हैं। धारदार हथियार से लगे वृक्ष के घाव नहीं भरे हैं।लोगों की माने तो आज भी वहां से डरावनी आवाज आती है। लोग कभी रात में इस क्षेत्र में नहीं जाते हैं। लोगों की माने तो उस वक्त जगह-जगह खून के थक्के जमा थे। घर के बर्तन बिखरे पड़े थे। कीवाड़ व दरवाजे जल चुके थे। हत्यारों ने गांव को घेर कर नारा लगाया था। इसके बाद हत्यारों ने कहा कि खबरदार जो जहां है वहीं रहेगा। इसके बाद लोगों को पकड़कर बांधा गया। एक जगह ले जाकर पेड़ के नीचे हत्या की गई थी। 

    (खून से लाल हो गया था इस कुएं का पानी।)

    नहीं पहुंची विकास की किरण

    घटना के बाद तत्कालीन मुख्यमंत्री विंदेश्वरी दूबे, वित्त मंत्री समेत तत्कालीन सभी विभागों के मंत्री पहुंचे थे। उस वक्त तरह-तरह की घोषणा भी की गई थी। गांव में बिजली की रोशनी पहुंचेगी, सिंचाई व्यवस्था होगी, लोगों को नौकरी दी जाएगी लेकिन अभी तक इन दोनों गांव में विकास की कोई किरण नहीं पहुंची। दलेलचक गांव में सिर्फ विद्यालय खोला गया लेकिन उसका संचालन सही तरीके से नहीं हो रहा है। बघौरा गांव में सड़ की हालत खराब है। सिंचाई की कोई भी व्यवस्था नहीं है। सबसे दयनीय हालात बघौरा गांव का है। यहां कोई सुविधा उपलब्ध नहीं है। 

    कुएं के पानी में है लालिमा

    बघौरा स्थित वो कुआं जहां मार कर लोगों को डाल दिया गया था उसके पानी में आज भी लालिमा है। बता दें कि इस हत्याकांड के बाद जो लोग रहते थे आज वह भी गांव से भाग गए। अब उस गांव में मात्र दो-तीन घरों में ही लोग रहते हैं। बघौरा गांव के सीताराम जी के परिवार में कोई भी नहीं बचा था। 

    आठ को हुई थी सजा

    इस मामले में बघौरा निवासी सत्येंद्र कुमार सिंह के बयान पर दर्ज प्राथमिकी में करीब 177 लोगों को आरोपित बनाया गया था। इनमे से आठ लोगों को दोषी करार दिया गया था। बाकी बरी हो गए थे। इन आठ लोगों को हाईकोर्ट ने फांसी की सजा मुकर्रर की थी लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने राहत देते हुए फांस की सजा को आजीवन कारावास में बदल दिया। वैसे सुप्रीम कोर्ट ने सभी आरोपितों को बरी भी कर दिया है।

     

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