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    बौद्ध धर्म में भिक्षुणियों को नहीं मिलते ओहदे

    By Edited By:
    Updated: Tue, 20 Dec 2011 07:16 PM (IST)

    विनय कुमार मिश्र, बोधगया

    बौद्ध धर्म में अभी तक महिलाओं को वह स्थान नहीं मिल सका है, जो यहां पुरुषों को प्राप्त है। बुद्धकाल में भी 'संघ' में भिक्षु-भिक्षुणियों व उपासक-उपासिकाओं को स्थान मिलता था। अंतर सिर्फ इतना था कि भिक्षु-भिक्षुणी को जहां गृहस्थ जीवन से दूर रहकर धर्म का प्रचार-प्रसार व ध्यान-साधना करना होता था, वहीं उपासक-उपासिका गृहस्थ जीवन में रहकर बौद्ध धर्म को अंगीकार कर संघ की सेवा करने के अधिकारी थे। आज भी यह प्रथा जीवंत है। लेकिन, पुरुष प्रधान समाज में यह बौद्ध धर्म के लगभग सभी पंथों में देखने को मिलता है। यही कारण है कि बौद्ध धर्म में भिक्षुणियों को कोई ओहदे (पद) नहीं दिए जाते। वैसे, जानकार बताते हैं कि भगवान बुद्ध ने कोई ओहदे का निर्धारण नहीं किया था, लेकिन तिब्बत में 11-12 सौ ई. में पद का निर्धारण शुरू हुआ और आज दलाईलामा, करमापा, समरपा, रिनपोछे और कई महत्वपूर्ण पद निर्धारित किए गए, जो मुख्यत: अवतारवाद पर आधारित हैं। लेकिन, इस अवतारवाद में आज तक किसी महिला की खोज नहीं की गयी और ना ही किसी को पदासीन किया गया।

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    चकमा मोनास्ट्री के भिक्षु प्रियपाल कहते हैं कि थेरवादी बौद्ध देशों यथा श्रीलंका, म्यांमार, थाईलैंड जैसे देशों में भिक्षुणी की परंपरा नहीं है। यहां उपासक-उपासिका की परंपरा है, जबकि महायानी बौद्ध देश जापान, कोरिया, चाईना, ताईवान आदि देशों में भिक्षुणी की परंपरा है। भिक्षु प्रियपाल कहते हैं कि ताईवान, थाईलैंड आदि देशों में मोनास्ट्री का प्रभारी बनाने का कार्य शुरू किया गया है। इसका उदाहरण बुद्धा स्लाइड इंटरनेशनल एसोसिएशन में देखने को मिलता है। बोधगया स्थित एसोसिएशन के केन्द्र में भी प्रभारी भिक्षुणी को बनाया गया है। इसी प्रकार सुजाता बाईपास रोड स्थित एक थाई मोनास्ट्री में भी यह देखने को मिल रहा है। यहां एक भिक्षुणी लुप्त परंपरा को जीवंत करते हुए अपनी पहचान बनाने को तत्पर है। इंटरनेशनल बुद्धिष्ट काउंसिल के पूर्व अध्यक्ष सह तिब्बत मंदिर प्रभारी लामा तेनजीन कहते हैं कि तिब्बत में भिक्षुणियों को ओहदे दिए जाते हैं। आज भी आमदो स्थित शाक्य मोनास्ट्री में कुगरी खादो मां विशिष्ट ओहदे पर बैठी हैं। इसी प्रकार सुंगसीप छिजुन रिनपोछे अवतारी भिक्षुणी हैं। सामडिंग दोरजे फामो भी एक बड़े मोनास्ट्री की प्रभारी हैं, जो 1942 में भारत आयीं और फिर पुन: 1951 में तिब्बत लौट गयीं। उन्होंने कहा कि आध्यात्मिक धर्मगुरु दलाईलामा भी भिक्षुणियों के ओहदे दिए जाने के पक्षधर हैं। इसलिए उन्होंने भिक्षुणियों को उच्चतर शिक्षा अर्जन करने की सलाह दी है।

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