भेड़ के बाल से कंबल बनाने का हुनर, बिहार में कैसे खत्म हो गई एक परंपरा?
Bihar traditional craft: पूर्वी चंपारण जिले के केसरिया प्रखंड में कभी भेड़ पालन से कंबल बनाने का काम होता था, जो अब अतीत बन गया है। 1990 के दशक तक ताज ...और पढ़ें

Bihar handicraft story: नई पीढ़ी को इस काम में रुचि नहीं है। सौ: इंटरनेट मीडिया
संजय कुमार सिंह,मोतिहारी (पूर्वी चंपारण)। sheep wool blanket Bihar: कभी बिहार की ठंड में भेड़ के बाल से बने कंबल गरीबों का सहारा होते थे, लेकिन वक्त के साथ यह अनमोल हुनर गुमनामी में खोता चला गया। आज इस परंपरा से जुड़े कारीगर रोजी और पहचान दोनों के लिए संघर्ष कर रहे हैं।
पूर्वी चंपारण जिले के केसरिया प्रखंड में बड़े पैमाने पर भेड़ पालन होता था। यह आजीविका का जरिया था। कारण यह कि भेड़ के बाल से कंबल तैयार किए जाते थे।
घर के सदस्य इस कार्य को पूरी तन्मयता के साथ करते थे। इससे उनका गुजर-बसर हो जाता था। बात 1990 की दशक से पहले की है। तब केसरिया प्रखंड की ताजपुर पटखौलिया पंचायत अंतर्गत भेड़िहरवा टोला गांव के लगभग 50 से अधिक परिवार इस कार्य में लगे हुए थे।
लेकिन समय का पहिया घूमा और कंबल बनाने का यह हुनर अतीत की बात हो गई। नई पीढ़ी दूसरे कार्यों में लग गई। मशीनी युग में सरकारी स्तर पर भी इस कौशल को बचाए रखने के लिए प्रयास भी नहीं किए गए। अब तो कुछ ही बुजुर्ग बचे हैं जिन्हें यह याद है कि कभी उनके यहां कंबल भी बनाया जाता था।

अब तो कंबल बनाने के काम में प्रयोग होने वाले चरखे व करघों का अवशेष भी नहीं बचा है। गांव में भेड़ भी नजर नहीं आते। तब घर की महिलाएं भेड़ के बाल से चरखा पर सूत तैयार करती थीं। इसके बाद उस सूत से घर के पुरुष सदस्य कंबल बनाने का काम करते थे।
अब नई पीढ़ी को इसके कोई दिलचस्पी नहीं है। उनके लिए यह घाटे का सौदा है। वे उस ओर मुड़ गए जहां से उन्हें अच्छी कमाई हो। गांव के ज्यादातर युवा दूसरे प्रदेशों में मेहनत-मजदूरी कर परिवार के लिए पैसा कमा रहे हैं।
कंबल तैयार करने में सिद्धहस्त रहे 75 वर्षीय चंद्रदीप भगत कहते हैं कि अब तो इस काम में किसी की दिलचस्पी ही नहीं है। युवा वर्ग इस कार्य से दूर हो चुका है। अब यह लाभकारी कार्य भी नहीं है। सरकारी स्तर पर भी इस कौशल को प्रोत्साहित नहीं किया गया।
वहीं, 60 वर्षीय राजेश्वर प्रसाद कहते हैं कि कभी कंबल बनाना यहां के लोगों का मूल काम होता था। केसरिया प्रखंड समेत आसपास के प्रखंडों में इस कंबल की अच्छी मांग थी। लोग मशीनी कंबल की जगह इसे ज्यादा पसंद करते थे।
अगर सरकारी स्तर पर इस कौशल को प्रोत्साहित किया जाता तो यहां के युवा आज भी इससे जुड़े होते। अब तो कुछ ही लोग बचे हैं जिन्हें यह काम आता है। वे स्वयं भी इस कार्य को करते थे।
वहीं, 40 वर्षीय संतोष कुमार पाल जो दूसरे प्रदेश में रहकर काम करते हैं, ने कहा कि अब इस काम में किसी की दिलचस्पी नहीं है। अगर कोई करना भी चाहे तो उसके लिए यह घाटे का काम होगा।
इसके लिए कच्चे माल के साथ बाजार की भी आवश्यकता होगी, जो अब नहीं है। गांव के शिवनाथ भगत और विक्रमा भगत भी उस समय को याद कर भावुक हो जाते हैं कि कैसे यह हूनर उनकी जिंदगी का हिस्सा हुआ करता था।
गांव की स्थिति यह थी कि लोग बड़े पैमाने पर भेड़ पालन करते थे। उसके ऊन से घर-घर कंबल बनाने का काम होता था। सरकार की ओर से भी इसको बचाने की दिशा में कोई काम नहीं किया जा रहा है।

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