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    नील के पौधे सुनाते अंग्रेजी जुल्मों की दास्तां

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    Updated: Sat, 15 Aug 2015 12:16 AM (IST)

    मोतिहारी। कभी चंपारण के खेतों में नील की खेती को सबसे उपयुक्त माना जाता था। बावजूद इसकी खेती अब यहां

    मोतिहारी। कभी चंपारण के खेतों में नील की खेती को सबसे उपयुक्त माना जाता था। बावजूद इसकी खेती अब यहां नहीं होती। अंग्रेजी हुक्मरान इस खेती को करने के लिए किसानों को मजबूर करते थे। कारण साफ है इस खेती के लिए किसानों पर जितने जुल्म अंग्रेजों ने किए हैं उसे सुनकर रोंगटे खड़े हो जाते हैं। नील की चर्चा मात्र से जो तस्वीर सामने उभरकर आती है वह है प्रताड़ना का। आम तौर पर किसानों के खेतों में नहीं मिलने वाला नील के पौधे आज भी गांधी संग्रहालय में लहलहा रहे हैं। ये पौधे हर आने वालों को याद दिलाते हैं आजादी के संघर्ष की। अंगेजी हुकूमत के जूल्मों की। बापू के संषर्घ की। पौधे को लगाने के पीछे भी कुछ यहीं सोच है। नील के इस पौधे से वैसे भी चंपारण का रिश्ता इतना मजबूत है कि सत्याग्रह के संघर्ष की चर्चा नील की खेती के बगैर अधूरी है।

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    इसी नील की खेती के लिए कहर बरपाते थे अंग्रेज नील की खेती के लिए चंपारण को सबसे उपयुक्त अंग्रेजों ने माना था। किसानों को इसकी खेती के लिए मजबूर किया जाता था। कड़े कानून बने थे। खेती को अनिवार्य कर दिया गया था। इसी को लेकर तीन कठिया प्रथा की शुरूआत की गई थी। किसानों को तीनकट्ठे में नील की खेती करना अनिवार्य कर दिया गया था। जो किसान बनाए नियमों का पालन नहीं करते थे उन्हें अंग्रेजी हुक्मरानों के कहर का शिकार होना पड़ता था। नीलहा कोठी की स्थापना की गई थी। इसके लिए एक विशेष अधिकारी तैनात किए गए थे। व्यथित किसान इस दर्द से निकलना चाहते थे। जब महात्मा गांधी चंपारण आए तो उन्हें लगा कि वे उन्हें इस दर्द से मुक्ति दिला सकते हैं। बापू ने भी किसानों की दर्द को समझा व उनकी लड़ाई लड़ उन्हें अंग्रेजों के कहर से मुक्त कराया। तीन कठिया प्रथा समाप्त हुआ। किसानों ने राहत महसूस किया। धीरे-धीरे यहां के किसान नील की खेती से मुंह मोड़ लिया।

    आम तौर पर किसान नील की खेती अब नहीं करते। बावजूद पुरानी यादों को ताजा करने के लिए गांधी स्मारक समिति ने परिसर में नील के पौधे लगाए हैं। यह आजादी की उस समय की कथा बयां करती है जब यहां के किसान इसकी खेती के लिए प्रताड़ित किए जाते थे।

    बृजकिशोर ¨सह, सचिव गांधी संग्रहालय

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