बक्सर युद्ध की एक हार ने देश को जीतना सिखाया
देश की चंद ऐसी घटनाएं हैं, जिनका असर अगली कई पीढि़यों ने महसूस किया है।
बक्सर। देश की चंद ऐसी घटनाएं हैं, जिनका असर अगली कई पीढि़यों ने महसूस किया है। इतिहास में दर्ज 23 अक्टूबर 1764 दिन भी उन्हीं घटनाओं में से एक है। जब, बक्सर के कथकौली मैदान में अंग्रेजों और विभिन्न प्रांतों में बंटी भारत की संयुक्त सेना के बीच युद्ध हुआ और उसमें अंग्रेजों की जीत हुई थी। महज साढ़े तीन घंटे की इस लड़ाई ने ऐसा तख्ता पलटा कि अंग्रेजों ने पूरे ¨हदुस्तान पर लगभग दो सौ वर्षो तक राज किया। हालांकि, इस युद्ध के सकारात्मक परिणाम भी आए और आपस में बंटे भारतीयों को इसी युद्ध ने एकजुटता का महत्व समझा दिया।
अवध, बंगाल और मुगलों की थी सेना
बक्सर के इतिहास को करीब से जानने वाले रामेश्वर प्रसाद वर्मा कहते हैं कि ईस्ट इंडिया कंपनी के प्रांतीय सत्ता में बढ़ते हस्तक्षेप व उसकी विस्तारबादी नीति के कारण युद्ध की स्थिति उत्पन्न हुई। लड़ाई अंग्रेज सेनापति मेजर हेक्टर मुनरो व अवध के नवाब शुजाउदौला, बंगाल के नवाब मीर कासिम तथा मुगल सम्राट साह आलम द्वितीय की संयुक्त सेना के बीच हुई थी। जिसमें भारतीय पक्ष के लगभग दो हजार सैनिक मारे गए थे।
गलत रणनीति के कारण हारी भारतीय सेना
इतिहासकार पीसी राय चौधरी ने शाहाबाद गजेटियर में लिखा है कि भारत की संयुक्त सेना के पास पैदल व घुड़सवार सैनिक ज्यादा थे, लेकिन उनमें समन्वय का अभाव था। लड़ाई में अंग्रेज सेनापति के पास 857 यूरोपियन घुड़सवार व 28 बंदूकधारी थे। जिनके बल पर संयुक्त सेना के लगभग दो हजार सैनिकों को उन लोगों ने मौत के घाट उतार दिए। अंग्रेजों ने बेहतर तालमेल के साथ ऐसा हमला बोला कि संयुक्त सेना को संभलने का मौका नहीं मिला और महज साढ़े तीन घंटे में उन्होंने युद्ध जीत लिया। संयुक्त सेना के सेनापति समरू ¨सह अपने सैनिकों के साथ लड़ते हुये शहीद हो गए। इस लड़ाई में अंग्रेजों के मात्र 38 गोरे व 250 भारतीय सिपाही की मृत्यु हुई थी।
कुएं में दफनाए गए योद्धा
इतिहासकारों के अनुसार संयुक्त सेना के इन मृतक योद्धाओं को कतकौली मैदान के समीप एक कुएं में हथियार सहित दफना दिया गया। आज भी वह कुंआ मौजूद है। हालांकि, इस कुएं को मिट्टी से भर दिया गया है। साक्ष्य स्वरूप यहां अंग्रेजों ने मुगल सैन्य अधिकारियों की कब्र व विजय स्तूप का निर्माण कराया। जिस पर उन्होंने अंग्रेजी, बंगाली, उर्दू व ¨हदी भाषाओं में अपनी जीत के कशीदे गढ़े थे। अब उस स्तूप के पत्थर टूट कर बिखर चुके हैं।
इस हार ने दिया जीतने का सबक
केके मंडल कालेज में दर्शनशास्त्र के शिक्षक डॉ. सच्चिदानंद सिन्हा कहते हैं कि बक्सर की पराजय से देश को आगे के युद्ध में कुशल रणनीति बनाने की प्रेरणा मिली। इसके बाद 1857 के विद्रोह में सीमित बल के बूते ही हमने अंग्रेजों को दांतों चने चबवा दिए। आजादी के बाद सभी प्रांतों को एक सूत्र में पिरो कर अखंड भारत का निर्माण भी उसी युद्ध में मिली नसीहत की देन थी। वहीं, विरासत को सहेजने की मुहिम चलाने वाले सतीश चंद्र त्रिपाठी कहते हैं कि कथकौली का मैदान भारत का दस्तावेजी इतिहास है, लेकिन इस स्थल की अनदेखी हो रही है। दुखद है कि हमलोग अपने इतिहास को अगली पीढ़ी के लिए सहेज नहीं रहे हैं।
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