आधुनिकता की भेंट चढ़ी प्याऊ की परंपरा
संवाद सूत्र सोनो (जमुई) गर्मी आरंभ होते ही सड़क किनारे पानी पिलाने के लिए जगह-जगह प्याऊ नजर आने लगता था। तपती दोपहरी में दो चार मिट्टी के घड़े रखकर उन पर टाट या लाल कपड़ा बांध दिया जाता था। हमेशा इसे गीला कर रखा जाता था ताकि मटके का पानी ठंडा रह सके।

- नहीं दिखता है मिट्टी के मटके की सोंधी खुशबू वाला ठंडा और गला तर कर देने वाला पानी का चलन
संवाद सूत्र, सोनो (जमुई): गर्मी आरंभ होते ही सड़क किनारे पानी पिलाने के लिए जगह-जगह प्याऊ नजर आने लगता था। तपती दोपहरी में दो चार मिट्टी के घड़े रखकर उन पर टाट या लाल कपड़ा बांध दिया जाता था। हमेशा इसे गीला कर रखा जाता था ताकि मटके का पानी ठंडा रह सके। पास ही एक लंबी डंडी नुमा कटोरी लिए कोई महिला या पुरुष बैठा होता था। वहां जाकर जैसे ही हाथों की मुद्रा खुद-ब-खुद बदल जाती थी और दोनों हथेलियां चुल्लू बन जाती। बिना कुछ कहे पास बैठी महिला या पुरुष चुल्लू में तब तक पानी डालते रहते थे जब तक पीने वाले का सिर संतुष्टि का भाव लिए हिल न जाए। अब न तो वह प्याऊ नजर आता है और न ही प्यार से पानी पिलाने वाले। आधुनिकता के इस दौर में हम अपनी संस्कृति तथा परंपरा को भूलते जा रहे हैं। आज पाउच और बोतल संस्कृति के बीच प्याऊ की परंपरा दम तोड़ती दिख रही है। पहले गांव कस्बों और शहरों में जगह-जगह कई प्याऊ देखने को मिल जाते थे, लेकिन उनकी संख्या गिनती की रह गई है। यही हाल सोनो का भी है। सोनो में भी जहां प्रखंड मुख्यालय से लेकर सुदूरवर्ती क्षेत्रों में कुछ वर्ष पूर्व तक गर्मी के इस मौसम में जगह-जगह प्याऊ नजर आता था, वहीं इस बार कहीं यह नजर नहीं आ रहा है। बोतलबंद पानी के इस युग में मिट्टी के मटको की सोंधी खुशबू वाला ठंडा और गला तर कर देने वाला पानी का चलन मानो आधुनिकता की भेंट चढ़ चुकी है।
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