पिछली परियोजनाओं की सीख पर टिका है कोसी-मेची की कामयाबी का भविष्य
कोसी-मेची परियोजना की सफलता का भविष्य पिछली परियोजनाओं से मिली सीख पर निर्भर करता है। बिहार के भागलपुर में इस परियोजना से विकास की उम्मीदें हैं। जल सं ...और पढ़ें

कोसी-मेची
जागरण संवाददाता, भागलपुर। कोसी–मेची लिंक नहर परियोजना अब धरातल पर उतरने लगी है। करीब 6,300 करोड़ रुपये की लागत वाली इस परियोजना में कोसी–सीमांचल के भाग्योदय का माद्दा है। कोसी में बाढ़ प्रबंधन के साथ साथ सीमांचल की 2000 हेक्टेयर भूमि को सिंचित करने की क्षमता। लेकिन, चुनौतियां भी कम नहीं। पूर्व की नहर परियोजनाओं से मिली सीख, गाद प्रबंधन, विस्थापन के सही प्रबंधन पर इसकी सफलता और असफलता का भविष्य टिका है। दैनिक जागरण के विमर्श में जल विशेषज्ञ दिनेश मिश्रा, सुपौल से भगवान जी पाठक और चंद्रशेखर ने इस परियोजना के विभिन्न पहलुओं पर चर्चा की और अपनी महत्वपूर्ण राय रखी।सबकी एक राय थी कि इस परियोजना की कामयाबी इस बात पर टिकी है कि हमने पिछली नाकामियों से क्या सीखा और कैसे उसे यहां दुरुस्त कर रहे।
कोसी के बाढ़ प्रबंधन और सीमांचल में सिंचाई क्षमता से हो सकता भाग्योदय
विशेषज्ञों ने बताया कि केंद्र सरकार ने वर्ष 2004 से नदी जोड़ परियोजना पर गंभीरता से विचार शुरू किया था। बिहार सरकार ने 2006 में कोसी–मेची लिंक को लेकर पहल की। इसके बाद नेशनल वाटर डेवलपमेंट अथारिटी ने 2010 में इसकी विस्तृत परियोजना रिपोर्ट तैयार की। केंद्रीय जल आयोग की नियमावली के अनुरूप आवश्यक सुधारों के बाद अब इस परियोजना को स्वीकृति मिल चुकी है और केंद्र से वित्तीय सहयोग का मार्ग भी प्रशस्त हो गया है।
कोसी–मेची लिंक नहर के निर्माण से कोसी–मेची दोआब क्षेत्र में लगभग 2.15 लाख हेक्टेयर, यानी करीब 5.31 लाख एकड़ भूमि को अतिरिक्त सिंचाई सुविधा मिलने की संभावना है। जिलावार देखें तो अररिया जिले में लगभग 1.70 लाख एकड़, किशनगंज में करीब 96 हजार एकड़, पूर्णिया में लगभग 1.70 लाख एकड़ और कटिहार में करीब 86 हजार एकड़ कृषि भूमि को नियमित सिंचाई का लाभ मिलेगा। यह आंकड़े बताते हैं कि यह परियोजना सीमांचल की खेती की संरचना को मजबूत करने की क्षमता रखती है। नियमित सिंचाई उपलब्ध होने से फसल उत्पादन बढ़ेगा, रबी फसलों का विस्तार होगा और किसानों की आय में स्थिरता आएगी। खेती केवल मानसून पर निर्भर नहीं रहेगी, जिससे कृषि जोखिम घटेगा और ग्रामीण जीवन में आर्थिक सुरक्षा बढ़ेगी। इस तरह कोसी–सीमांचल की पहचान धीरे-धीरे एक सशक्त कृषि क्षेत्र के रूप में उभर सकती है।
-बालू की समस्या, विस्थापन और पर्यावरणीय चिंता की चुनौती से निपटना होगा
लेकिन, सब कुछ हरा-हरा नहीं। जल विशेषज्ञ दिनेश मिश्रा ने यह भी स्पष्ट किया कि इतनी बड़ी जल परियोजना में कुछ अहम मुद्दों पर पहले से साफ नीति और तैयारी जरूरी है। नहर से निकलने वाली गाद (सिल्ट) का प्रबंधन सबसे बड़ा सवाल है। यह गाद कहां और कैसे डाली जाएगी, ताकि खेतों, बस्तियों और पर्यावरण को नुकसान न पहुंचे। इसी तरह उन्होंने यह सवाल भी उठाया कि यदि किसी कारणवश नहर में दरार या टूट-फूट होती है, तो पानी को फैलने से रोकने की क्या व्यवस्था होगी और उससे उत्पन्न जल-जमाव से निपटने की रणनीति क्या होगी।
दिनेश मिश्रा ने यह भी रेखांकित किया कि परियोजना की सफलता के लिए स्थानीय लोगों की सहमति बेहद जरूरी है। उन्होंने कहा कि किन-किन मुद्दों पर ग्रामीणों, किसानों और प्रभावित आबादी से संवाद हुआ है, यह स्पष्ट होना चाहिए। भूमि, जल-निकासी, बाढ़-सुरक्षा और पुनर्वास जैसे विषयों पर स्थानीय स्तर पर भरोसा बने, तभी परियोजना लंबे समय तक टिकाऊ होगी। विशेषज्ञ चंद्रशेखर और भगवान जी पाठक ने बताया कि पर्यावरणीय दृष्टि से जल-प्रवाह में बदलाव, जैव विविधता और भू-जल पर पड़ने वाले प्रभावों को स्पष्ट रूप से समझा जाना चाहिए। इसके उचित उपाय भी किए जाएं यह भी अपेक्षा जताई।
बालू का समाधान
कोसी मेची लिंक परियोजना अंतर्गत मुख्य नहर से निकलने वाले बालू को लेकर मुख्य अभियंता सिंचाई प्रमंडल सहरसा अनिल कुमार ने बताया कि उक्त बालू को पहले तो नहर के दोनों पाटों पर ही रखा जाएगा। वहां से पुनः रेलवे और हाइवे में अर्थ फिलिंग कार्य में ले जाया जाएगा। इसके लिए 35 रुपये से लेकर 100 रुपये तक की राशि का भुगतान सरकारी खाते में करना होगा। साथ ही अगर कोई स्थानीय व्यक्ति भी इसका लाभ उठाना चाहेंगे तो राशि का भुगतान कर ले जा सकते हैं। उक्त बालू के हट जाने से लिंक परियोजना में बालू बाधा नहीं बनेगी।

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