होली : फाल्गुन में अब कम गूंजते हैं फाग के गीत, कभी धूमती थी गवैयों की टोली Bhagalpur news
फागुन आते ही नगाड़े की थाप और रसभरी गीतों की गूंज लोगों को आह्लादित कर देती थी। चारों ओर फाग गवैयों का मस्ती भरा शोर स्वस्थ पारंपरिक गीत लोगों के उत्स ...और पढ़ें

भागलपुर [नवनीत मिश्र]। फागुन आते ही नगाड़े की थाप और रसभरी गीतों की गूंज लोगों को आह्लादित कर देती थी। चारों ओर फाग गवैयों का मस्ती भरा शोर, स्वस्थ पारंपरिक गीत लोगों के उत्साह को दोगुना कर देते थे। पर समय के साथ-साथ फाग गीतों की परंपरा विलुप्त होती जा रही है। हालांकि कोसी नदी के किनारे बसे मदरौनी गांव में आज भी ब्रज की होली गाने का परंपरा कायम है।
तीसरी पीढ़ी आज भी पुरानी परंपरा को संजोए हुए है। आजादी के पूर्व से यहां फाग गाने का रिवाज है। फागुन शुरू होते ही ग्रामीण आपसी भाईचारा को बनाए रखने के लिए साथ बैठकर होली की गीत गाते हैं और खूब मस्ती करते हैं।
मदरौनी के बुजुर्ग केशव सिंह बताते हैं कि 1970-80 के दशक में अधिकांश गांवों में फाग गाने वालों की महफिल सजने लगती थी, लेकिन वक्त के साथ-साथ महफिलों की संख्या कम होने लगी। वर्तमान में होली के पूर्व कुछ गांवों में ही फाग गाए जा रहे हैं। आधुनिकता की चकाचौंध और बाजारवादी संस्कृति की वजह से फाग गायकी की परंपरा अब सिमट कर रह गई है। हालांकि अभी भी कुछ लोग इस समृद्ध परंपरा को जीवित रखे हुए हैं।

फाग गायक 55 वर्षीय जयकरण सिंह का कहना है कि फाग गायकी के प्रति मदरौनी गांव की नई पीढ़ी में रूझान है। लेकिन आसपास के कई गांवों में कोई रुझान नहीं है, यह चिंता की बात है। मदरौनी के केशव सिंह बताते हैं कि सभी एक साथ बैठकर होली का आनंद लेते हैं। इस दौरान रामायण से जुड़े 'दशरथ के सुत चार भयो' 'डगर चले दो भैया वन के डगर चले' तो महाभारत के 'विनय करे महारानी द्रोपदी विनय करे' आदि प्रेरणास्पद होली गाते हैं।
जबकि गांव के ही विधान पार्षद डॉ. संजीव सिंह बताते हैं कि गांव बसने के समय से ही आपस में मिलन, सामाजिक सौहार्द तथा सामाजिक सांस्कृतिक एकता के लिए ऐसी परंपरा हमारे पूर्वजों ने कायम की थी, जिसे अनवरत रखना हमारा सौभाग्य है।
पंकज सिंह बताते हैं कि फगुआ गायन में विशेष कर चौताल, अद्र्ध तीन ताल, दादरा, कहरवा और अद्र्ध तीन ताल का अलग ही आनंद रहता है। जब वादक तेज गति से ढोलक पर अपनी उंगली और हथेली चलाता है तो लोग बरबस ही झूमने पर मजबूर हो जाते हैं। पर अफसोस इस बात का है कि अब यह सब विलुप्त हो चला है।
पहले दिन ढलते ही जमती थी महफिल
पहले दिन ढलते ही ढोलक की थाप लोगों को घर से निकलने के लिए विवश कर देती थी और एसी महफिल जमती था कि राह चलने वाले भी कुछ पल ठहर जाते थे। अब न वह टोली दिखती है और न ही ऐसे नगाड़ा व ढोलक वादक। कई स्थानों पर 'हई न देख सखी फागुन के उत्पात, दिनवो लागे आजकल पिया मिलन के रात..', 'मड़वा में रामजी के रंग हई पगडिय़ा...', 'रामा खेले होली हो लखन खेले होली....', 'भर फागुन बुढ़वा देवर लागे...' एवं 'धन राजा दशरथ, धन हो कौशल्या...' जैसे फाग गीत गूंजने लगते थे।

कमेंट्स
सभी कमेंट्स (0)
बातचीत में शामिल हों
कृपया धैर्य रखें।