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    सिर पर कफन बांध, स्वतंत्रता आंदोलन में कूदे थे सीताराम सिंह, जमुई के हृदयपटल पर अंकित है उनकी स्वर्णिम कहानी

    आजाद भारत का सपने को पूरा करने के लिए कई लोगों ने अपने जीवन की आहूति दे दी। कई ने कम उम्र में ही स्वतंत्रता आंदोलन के लिए सिर पर कफन बांध लिया। जमुई के सीताराम सिंह उन्हीं स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों में से एक हैं। पढ़ें उनके बारे में...

    By Shivam BajpaiEdited By: Updated: Tue, 02 Aug 2022 04:46 PM (IST)
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    जमुई के स्वतंत्रता संग्राम सेनानी सीताराम सिंह।

    मणिकांत, जमुई: सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है, देखना है जोर कितना बाजू-ए-कातिल में है। इसी तरह का जज्बा रखने वाले आजादी के दीवाने की कई कहानियां जिले के हृदयपटल पर अंकित है। सिर पर कफन बांध कर स्वतंत्रता आंदोलन में कूदने वाले देशभक्तों में एक नाम खैरा प्रखंड के घनबेरिया गांव निवासी सीताराम सिंह का भी है। सीताराम सिंह उन सेनानियों में रहे, जिन्होंने श्रीकृष्ण सिंह के सानिध्य में रहकर स्वतंत्रता आंदोलन का पाठ सीखा। सीताराम सिंह का जन्म एक किसान परिवार में हुआ था। 21 साल की उम्र में ही उन्हें वर्ष 1938 में श्रीकृष्ण सिंह के साथ स्वतंत्रता आंदोलन में कूदने का अवसर मिला।

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    इसके बाद वे श्रीकृष्ण सिंह तथा भागवत सिंह के साथ मिलकर आजादी के प्रति लोगों को जागरूक करने में जुट गए। सुंदर लेखनीय के कारण उन्हें दीवार लेखन एवं पर्चा लिखने की जिम्मेदारी दी गई थी। वे गांव-गांव घूम-घूम कर दीवार में गीत लिखकर लोगों में देश प्रेम की चेतना भरते थे। इसके बाद महात्मा गांधी द्वारा चलाए गए विदेशी कपड़ों का बहिष्कार करो, सूत काटो-कपड़े तैयार करो, उसी को पहनो और स्वाभिमानी व स्वाबलंबी बनो, तभी अंग्रेजी हुकूमत से लड़ा जा सकता है का प्रचार-प्रसार किया। इस दौरान सीताराम सिंह की मुलाकात एक जनसभा में डा लोहिया से हुई और वे तब से लोहिया को गुरु मानने लगे।

    • श्रीकृष्ण सिंह के सानिध्य में रहकर सीताराम सिंह ने सीखा था देशभक्ति का पाठ
    • - 21 वर्ष की उम्र में ही गुलामी के खिलाफ उठाई थी आवाज
    • - डा लोहिया से मिलने के बाद उन्हें मानने लगे गुरु

    जेल में लगाते रहे भारत माता का जयघोष

    1942 में पहली बार सोए अवस्था में सीताराम सिंह को पुलिस घर से गिरफ्तार कर थाने ले गई, वहां उन्हें मारपीट कर लहुलुहान कर दिया गया। लेकिन, उनके मुंह से एक ही आवाज निकल रही थी, भारत माता की जय, अंग्रेजों भारत छोड़ो। आखिरकार 15 अगस्त 1947 को भारत आजाद हो गया जो उनके जीवन का सबसे स्वर्णिम दिन था। उस दिन उन्हें काफी खुशी हुई। आंदोलन के दौरान वे युवाओं को एकता का महत्व समझाते थे और आपस में विखंडित होने की बात नहीं करते थे। उनका कहना था रूकना नहीं, चाहे डगर जितनी भी कठिन क्यों न हो।