देश ही नहीं, विदेशों तक होने लगी थी आंखफोड़वा कांड की चर्चा, ये रहा 33 पीड़ितों का अनसुना किस्सा
Bihar News - बिहार के भागलपुर के चर्चित आंखफोड़वा कांड को शायद आज के दौर के युवा नहीं जानते लेकिन उस दर्द की आह आज भी भागलपुर में सुनाई देती है। 80 के दशक के लोग उस कांड को याद कर सिहर उठते हैं। बिहार क्राइम को नियंत्रित करने...
आनलाइन डेस्क, भागलपुर: 'कानून बना है सजा देने के लिए लेकिन मेरे पिता के साथ जो कुछ हुआ। उससे शायद पुलिस का मन भर गया हो लेकिन हमारे घर में हमेशा के लिए अंधेरा छा गया। हमारे पुनर्वास की चर्चा पहले हुई लेकिन बाद में हमें दर-दर की ठोंकरें खानी पड़ी। दर्द तो ऐसा है कि उसे बयां नहीं किया जा सकता। हमें समाज में नई पहचान नहीं मिल पाई।' ये लफ्ज हैं भागलपुर के चर्चित आंखफोड़वा कांड के पीड़ित उमेश मंडल के पुत्र दयानंद मंडल के। दयानंद मंडल बताते हैं कि वो उस समय काफी छोटे थे। घर में पुलिस का आना जाना बढ़ गया था। जब मेरे घर वालों ने पिता को देखा तो सबकी रूह कांप गई। आज हम पुलिस को देखते हैं तो वही भय उमड़ पड़ता है। गौरतलब हो कि 42 साल पहले 1980 में जो कुछ हुआ। उस दर्दनाक कहानी को बयां करने के लिए कई फिल्में और डाक्यूमेंट्री बनाई जा चुकी हैं अब कांड फिर से चर्चा में है। अरूण शौरी की आत्मकथा THE COMMISSIONER FOR LOST CAUSES ने इस कांड को फिर से ताजा कर दिया है।
प्रकाश झा की 'गंगाजल' और अमिताभ परासर की 'द आइज ऑफ डार्कनेस' डाक्यूमेंट्री के बाद इस आत्मकथा ने आंखफोड़वा कांड और भागलपुर के काले अध्याय के बारे में लोगों का ध्यानाकर्षण करना शुरू कर दिया है। ऐसे में हम आपको उस कांड से जुड़ी कुछ और अनसुनी बात बताने जा रहे हैं। बात उन दिनों की है, जब बिहार में भागलपुर जिला क्राइम जोन बन गया था। अपराधी वारदातों को अंजाम देते और फरार हो जाते। अक्सर जब इन्हें पकड़ा जाता, तो अपने ऊंचे रसूख के चलते पुलिस को इन्हें छोड़ना पड़ जाता था। पुलिस अपराधियों को पकड़ती लेकिन इनके आका, इन्हें छुड़वा लेते। कांड के पीड़ितों के लिए लड़ने वाले सीनियर वकील राम कुमार मिश्रा इसपर पहले भी अपनी प्रतिक्रिया देते रहे। उन्होंने इस पूरे मामले में लड़ाई लड़ी। राम कुमार मिश्रा के मुताबिक ये वो अपराधी थे, जो पैसों के लिए जरायम की दुनिया में कदम रख चुके थे। एक दफा कोर्ट में इनकी पेशी के लिए जब पुलिस लेकर आई, तब देखा कि इनकी आंखों से खून बह रहा है।
एक के बाद एक कई अपराधियों की आंखें थी लाल
साल 1980 में एक अपराधी को देख, पहले इसे इग्नोर किया गया लेकिन बाद में एक के बाद एक कई अपराधी जो पेशी के लिए लाए जा रहे थे। उनकी आंखें खून से लाल थी। लिहाजा, इसपर पहल की गई। एक से पूछा तो उसने अपने साथ हुई दर्दनाक बदसलूकी के बारे में बताना शुरू किया। इस कांड को नजदीक से जानने वाले भागलपुर के वयोवृद्ध कहते हैं कि उन दिनों मीडिया ने भी अहम रोल अदा किया। अखबार में इस कांड के चर्चा जोरों पर होने लगी। कुछ 30 के पास अपराधी रहे होंगे लेकिन बाद में इनकी संख्या 33 पहुंच गई। जिनके साथ पुलिस ने बर्बरता की थी। अपराधियों को पहले पीटा गया था, जुर्म कबूलने के लिए इनकी आंखें फोड़ी गई और उसमें तेजाब डाल दिया गया। गंगा किनारे बसे भागलपुर के इस तेजाब कांड के बाबत कुछ लोगों ने बताया कि ये पुलिस का गुप्त आपरेशन था। जिसका नाम 'गंगाजल' रखा गया था।
पुलिस ने तेजाब को बनाया हथियार
दर्द के मंजर के गवाह भागलपुर के लोग पुलिस की इस कार्रवाई के बारे में कहते हैं कि उन दिनों ऐसा लगने लगा था कि मानो पुलिस का हथियार लाठी या बंदूक नहीं, बल्कि तेजाब हो। पुलिस इसी का प्रयोग कर अपराधियों में दहशत लाना चाहती थी। पुलिस की इस तरह की कार्रवाई के बाद जिले में अपराध तो नियंत्रित हो गया लेकिन लोगों को पुलिस का अमानवीय चेहरा भी सामने आया। पुलिस प्रशासन के साथ-साथ सरकार पर भी सवाल खड़े होने लगे। इसके बाद सरकार की तरफ से कई बार आंखफोड़वा कांड के पीड़ितों को पुनर्वास के लिए कोशिश की गई लेकिन काफी दिनों तक पीड़ितों को किसी भी प्रकार की सरकारी सहायता नहीं मिल सकी। पहले कुल 33 पीड़ितों में से कुछ पीड़ितों को 750 रुपये मात्र पेंशन के रूप में दिए गए लेकिन बाद में सरकारें बदली तो इनकी पेंशन पर भी आ बनी।
उमेश मंडल की जिंदगी
पीड़ितों में साहेबगंज के उमेश मंडल की भी आंखों में तेजाब डाल दिया गया था, उसके बाद से उनकी जिंदगी में पूरी तरह से अंधेरा छा गया। उमेश मंडल के बेटे कहते हैं यदि कानून सजा देता तो उसकी जिंदगी अंधकार भरी नहीं होती...'खाकी देख डर जाते हैं'। मंडल के बेटों की नजर में खाकी की छाप पूरी तरह से मानवीय क्रूरता से भरी हुई है। आंखफोड़वा कांड पीड़ित उमेश मंडल के पांच बेटे और एक बेटी है। बेटों से बातचीत के दौरान यह पता चला उमेश मंडल की मौत लगभग 10 वर्ष पूर्व ही हो गई। बेटे बताते हैं कि उनकी जिंदगी काफी दुखद हो गई थी। बच्चों के सहारे ही उमेश सारा काम करता था और एक ही जगह बैठा रहता था। उमेश के बेटों का कहना है कि कानूनन सजा मिलती तो हम एक दफा अपने अस्तित्व को बना सकते थे लेकिन अब समाज में कलंकित महसूस करते हैं।
दैनिक जागरण भागलपुर के उप समाचार संपादक संजय सिंह उन दिनों को याद करते हुए बताते हैं, 'कांड की जानकारी सबसे पहले पटना के पत्रकार अरुण सिन्हा को मिली। उनके यहां अरूण शौरी आए थे। इसी दौरान अरुण सिन्हा ने शौरी को पूरे वाकये के बारे में बताई थी। शौरी उन दिनों पटना में भाड़े की कार लेकर सीधे भागलपुर पहुंचे और यहां तत्कालीन जेल सुपरीटेंडेट बीएल दास से मुलाकात की। क्योंकि वो उन दिनों वे बतौर संपादक एक मशहूर अंग्रेजी सप्ताहिक मैगजीन में कार्यरत थे। फिर उन्होंने इसे कवर पेज पर प्रकाशित किया। इस तरह देशभर में सभी पत्रकार एकजुट होकर कांड के बारे में जानने और इसे प्रकाशित करने लगे। मामले में तत्कालीन एसपी बीडी राम ( विष्णु दयाल राम) का नाम चर्चा में रहा। वे कड़क मिजाज एसपी माने जाते थे। कहा जाता है कि उन्होंने ही गंगाजल आपरेशन चलाया। बदमाशों ने इनके भाई की हत्या कर दी थी। हालांकि, कोर्ट ने इन्हें आंखफोड़वा कांड में बरी कर दिया था। बाद में ये झारखंड के डीजीपी बनाए गए और इन दिनों सांसद हैं।'
कांड के पीड़ित
अंखफोड़वा कांड में अपनी आंखों की रोशनी को गंवाने वालों में शालिग्राम तांती, रामस्वरूप मंडल, मंटू हरि, लखन मंडल, पटेल साह, बलजीत सिंह, देवराज खत्री, भोला चौधरी, चमकलाल यादव, पवन सिंह, शालिग्राम साह, उमेश यादव, सहदेव दास, शंकर तांती, शैलेश तांती, सहदेव दास, वसीम मियां, सल्लो बेलदार, कमल तांती, सुरेश साह, रमन बिंद, दलाल गोस्वामी, श्रीनिवास टीयर, अर्जुन गोस्वामी, बशीर मियां, मांगन मियां, अनिल यादव समेत कुल 33 लोग थे। ये लोग अपने जमाने के चाकूबाज या लुटेरों के रूप में जाने जाते थे, जो गिनी चुनी वारदातों को अंजाम दे चुके थे।
संजय सिंह बताते हैं कि उस समय भागलपुर के सांसद डॉ. राम जी सिंह जी थे। उन्होंने संसद में इस घटना को जोरदार तरीके से उठाया। तब इस मामले में एक दर्जन पुलिस पदाधिकारियों पर निलंबन की कार्रवाई हुई। 15 पुलिस अधिकारियों को आरोपित बनाते हुए न्यायिक कार्रवाई शुरू हो गई, जिसमें से 14 पुलिस पदाधिकारी ने आत्मसमर्पण कर दिया। सर्वोच्च न्यायालय की पहल पर सभी पीड़ितों का उपचार करते हुए मुआवजा दिया गया। मामले में चर्चित डीएसपी शर्मा, इंस्पेक्टर मांकेश्वर सिंह और दरोगा वसीम सहित तकरीबन दर्जनों पुलिस पदाधिकारियों के खिलाफ बर्खास्तगी की कार्रवाई की गई थी।
सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायमूर्ति ने पुनर्वास के लिए भी आदेश दिए. लेकिन सरकार की तरफ से आंखफोड़वा कांड के मुआवजा 750 रुपये प्रति माह की सहायता राशि शुरू कर दी गई, जो कि पिछले वर्ष बंद कर दी गई। मुआवजा के तौर पर सभी 33 पीड़ितों के नाम से 30-30 हजार रुपये स्टेट बैंक ऑफ इंडिया में जमा कराए गए थे। इस घटना को लेकर भागलपुर में बहुत हंगामा हुआ। सरकार पर सवाल उठाए जाने लगे। कुछ लोग भागलपुर पुलिस के फेवर में भी थे। लेकिन अधिकांश लोग इस मामले के बाद विरोध में। संजय बताते हैं कि भागलपुर का आंखफोड़वा कांड सिर्फ देश ही नहीं विदेशी मीडिया की नजरों में आ गया था। कई देशों से पत्रकार यहां पहुंचे थे।
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