Kargil Vijay Diwas 2025: 'मेरा बेटा वहीं सितारों में...', मां धुंधली आंखों से आज भी देखती है बेटे की राह
भागलपुर के तिरासी और मदरौनी गांव के दो शहीद रतन सिंह और प्रभाकर सिंह की कहानियां आज भी लोगों के दिलों में जिंदा हैं। रतन सिंह के बेटे रूपेश हर सुबह अपने पिता की तस्वीर के आगे दीपक जलाते हैं जबकि प्रभाकर के भाई दिवाकर उनकी वर्दी और तस्वीरों को संदूक में सहेज कर रखते हैं।

ललन राय, नवगछिया (भागलपुर)। तिरासी गांव की मिट्टी आज भी अपने बेटे की राह देख रही है। चौक पर लगे बलिदानी स्मारक की तस्वीरें धूल से ढंकी हैं, लेकिन हर बार जब हवा चलती है, जैसे कोई आवाज कहती है। मैं लौटा नहीं, पर मिटा भी नहीं।
हवलदार रतन सिंह को गए आज 26 साल हो चुके हैं। पर उनके बेटे रूपेश सिंह की आंखों में आज भी पिता की वह अंतिम झलक तैरती है। वो कहते हैं कि हमें लगा था वो लौटेंगे। वो कह रहे थे जल्द मिलेंगे। लेकिन लौटे तिरंगे में लिपटकर।
रूपेश हर सुबह पिता की तस्वीर के आगे दीपक जलाते हैं। तस्वीर के नीचे एक किताब खुली होती है। जिसमें उनके पिता की हाथ की लिखाई है। देश से बड़ा कुछ नहीं होता। यह लाइन उन्हें जीने की ताकत देती है।
उनके गांव के लोग बताते हैं कि रतन सिंह हमेशा मुस्कुराते रहते थे। गांव के बच्चों को कहानियां सुनाते, खेतों में हल भी चलाते और छुट्टियों में मां के पांव दबाते। लेकिन 1999 की एक खबर ने सब कुछ तोड़ दिया।
दूसरी ओर, मदरौनी गांव अब किसी नक्शे पर नहीं है। कोसी नदी उसे अपने साथ बहा ले गई। लेकिन इस गांव ने भी शहीद प्रभाकर सिंह नाम एक बहादुर बेटा दिया था। उनके भाई दिवाकर आज पूर्णिया में एक किराए के घर में रहते हैं। लेकिन उनके पास एक संदूक है, जिसमें एक वर्दी, एक बैच और एक पुराना फोटो एल्बम रखा है।
दिवाकर जब वो एल्बम पलटते हैं तो एक तस्वीर पर उंगली रुक जाती है। प्रभाकर की मुस्कुराती तस्वीर। वे कहते हैं कि ये आखिरी बार हंसे थे। फिर खबर आई कि कारगिल में वो गोली से नहीं, हौसले से लड़े और गिर पड़े। बलिदानी प्रभाकर की मां अब बोल नहीं पातीं।
मां की आंखें भी धुंधली हो चुकी हैं, लेकिन जब कोई उनके बेटे का नाम लेता है, तो उनकी उंगलियां थरथराते हुए आकाश की ओर उठ जाती हैं। जैसे कह रही हों, मेरा बेटा वहीं सितारों में है। ये वो कहानियां हैं जो कभी नहीं मिटतीं। सरकारें बदलती हैं, घोषणाएं आती हैं और भूल जाती हैं।
लेकिन किसी बेटे की आंखों में बसे पिता, किसी मां की थरथराती उंगलियों से छूती तस्वीर और किसी संदूक में बंद एक वर्दी, ये कभी पुराने नहीं होते। रतन और प्रभाकर चले गए।
लेकिन वे अपने गांव की मिट्टी, अपनी मां की सांसों, और अपने बेटे की आंखों में आज भी जिंदा हैं। बलिदानी मरते नहीं। वे बस वक्त की भीड़ में थोड़ी देर के लिए खो जाते हैं।
कमेंट्स
सभी कमेंट्स (0)
बातचीत में शामिल हों
कृपया धैर्य रखें।