मखाना की खेती से लोगों को मिल रहा है रोजगार
कोसी-सीमांचल में लगभग 21 हजार हेक्टेयर में मखाना उत्पादन किया जा रहा है।
किशनगंज (अमितेष) : मखाना की खेती से जहां किसान अपनी समृद्धि की कहानी लिख रहे हैं, वहीं हजारों लोगों को रोजगार भी मिल रहा है। पहले जहां मिथिलांचल में बहुतायत मखाने का उत्पादन हो रहा था, वहीं अब इसका उत्पादन कोसी परिक्षेत्र और सीमांचल के इलाकों में शिफ्ट हो चुका है। किशनगंज समेत कोसी-सीमांचल में लगभग 21 हजार हेक्टेयर में मखाना उत्पादन किया जा रहा है। आने वाले दिनों में कम से कम 50 हजार हेक्टेयर में मखाने की खेती की संभावना जताई जा रही है। दरभंगा और मधुबनी के लगभग 15 हजार परिवार पूर्णिया और कटिहार इलाके में रहकर मखाना की गुर्री से लावा बनाने के काम में जुटे हैं।
हाल के दिनों तक मखाना की खेती और उत्पादन पर मिथिलांचल का एकाधिकार माना जाता था लेकिन समय के साथ सबकुछ बदलता चला गया। अब मखाना की खेती कोसी-सीमांचल में शिफ्ट हो चुका है। पहले जहां ताल-तलैया में इसकी खेती किसान किया करते थे अब इन इलाकों में लोग खेतों में करने लगे हैं। यही वजह है कि देशभर के उत्पादन का सर्वाधिक कोसी-सीमांचल में ही उत्पादित हो रहा है। कोसी, महानंदा समेत दर्जनों नदियों से घिरी इन इलाकों में सर्वाधिक जलजमाव वाला क्षेत्र है, जिसे अनुपयोगी माना जाता था। भोला पासवान शास्त्री कृषि कॉलेज के मखाना वैज्ञानिकों की पहल पर किसानों ने उन्हीं जल प्लावित यानी वेटलैंड में मखाना की खेती शुरू कर खुद को स्वरोजगार से जोड़ रहे हैं। मखाना वैज्ञानिकों द्वारा जुटाए गए आंकड़ों पर गौर करें तो पूर्णिया में लगभग 50000, कटिहार में 5500, सहरसा में 4000, सुपौल में 2500, मधेपुरा में 2100, अररिया में 1200 और किशनगंज में 1100 हेक्टेयर में मखाना की खेती हो रही है।
लगभग 21 हजार हेक्टेयर में हो रहा मखाना के उत्पादन में जहां इस इलाके हजारों किसानों को रोजगार के अवसर मिले हैं। वहीं मखाना के गुर्री से लावा बनाने के काम में मधुबनी और दरभंगा जिले के लगभग 15 हजार परिवार भी जुड़े हैं। ये लोग पूर्णिया के हरदा बाजार, बेलौरी, खुश्कीबाग, कटिहार के गेराबाड़ी, सहरसा के सत्तर कटैया समेत विभिन्न जगहों पर रहकर गुर्री से लावा बनाने के काम में जुटे हैं। दरभंगा जिले के जगदीशपुर के रहने वाले धनेश्वर सहनी बताते हैं कि वे सब परिवार साल के छह महीने हरदा बाजार में रहकर गुर्री से लावा बनाते हैं। किसानों व व्यापारियों से गुर्री खरीदकर लावा बनाते हैं फिर वही लावा व्यापारियों को बेचते हैं। इस काम में उनके साथ परिवार के सभी लोग साथ देते हैं। वे बताते हैं कि बहुत फायदा तो नहीं मिलता है लेकिन एक तरह से हमारे पूरे परिवार को रोजगार के साथ-साथ वाजिब मेहनताना जरूर मिल जाता है। वहीं घनश्यामपुर के सुरेश सहनी, बिठौली के जीवछ सहनी, सकरी के लालवती देवी समेत अन्य लोग बताते हैं कि हमलो सपरिवार यहां 10 हजार रुपये सलाना भाड़ा देकर झोपड़ी में रहते हैं। काम भले ही छह महीने ही चलता है लेकिन भाड़ा सालोंभर देते है। ये लोग पहले दरभंगा के कुशेश्वसर स्थान में रहकर फोड़ी का काम करते थे लेकिन पिछले दो-तीन वर्षों में पूर्णिया के इलाके में इनकी मांग अधिक बढ़ी है और रोजगार के भी अवसर बढ़ते जा रहे हैं, इसलिए वे लोग अब यहां रहकर इस रोजगार में सपरिवार जुटे रहते हैं।
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