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    Chhath Puja 2024: देश-विदेशों में बज रहा बिहार के कल्चर का डंका, थाईलैंड की महिलाएं भी कर रहीं छठ; यहां पढ़ें कारण

    Updated: Mon, 04 Nov 2024 10:30 AM (IST)

    थाईलैंड में रहने वाले भारतीय परिवारों की छठ व्रत की आस्था ने स्थानीय थाई परिवारों को भी प्रभावित किया है। थाई परिवारों की महिलाएं अब छठ व्रत में शामिल होने लगी हैं और ठेकुआ कसार जैसे पारंपरिक पकवान बनाने में सहयोग करती हैं। वे सूर्यास्त और सूर्योदय की प्रतीक्षा करके भगवान सूर्य को अर्घ्य देती हैं। यह एक सुंदर सांस्कृतिक आदान-प्रदान का उदाहरण है।

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    प्रस्तुति के लिए इस्तेमाल की गई तस्वीर

    कौशल किशोर मिश्र, भागलपुर। लोक आस्था के महापर्व छठ व्रत की महिमा विदेश में भी गूंजने लगी है। थाईलैंड में रह रहे भारतीय परिवारों की आस्था देख वहां का थाई परिवार भी छठ मइया का व्रत करने लगा है।

    ऐसे परिवारों की संख्या अभी गिनी-चुनी ही है, लेकिन छठ पर्व पर भगवान सूर्य को अर्घ्य देने के लिए अच्छी-खासी संख्या में थाई परिवारों के लोग जमा होते हैं। वहां की महिलाएं न सिर्फ ठेकुआ व कसार प्रसाद निर्माण में सहयोग करती हैं, बल्कि तयशुदा स्थान पर अर्घ्य देने के लिए सूर्यास्त व सूर्योदय की प्रतीक्षा भी करती हैं।

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    भागलपुर के बरारी में रहने वाले धनंजय प्रसाद शुक्ला के परिवार के कुछ लोग थाईलैंड के 50, शुखमावित सोई गीता आश्रम स्ट्रीट में रहता है। वहां परिवार से जुड़ा समरेश शुक्ला का परिवार लोक आस्था का महापर्व छठ व्रत करता आ रहा है।

    उनकी पत्नी रश्मि शुक्ला, गोरखपुर से जाकर बसे जयप्रकाश मिश्रा के परिवार की महिलाएं शुभी, गुड्डन, अनीता, श्रेया, छाया आदि इस बार भी व्रत की तैयारी कर रही हैं।

    दो सालों से वहां की महिलाएं कर रही हैं छठ

    शुक्ला परिवार की छठ मइया के प्रति आस्था देख पहले छठ व्रत के परंपरागत ठेकुआ, कसार आदि के पकवान बनाने में नुट्टीपोरन पारजुगलांग का परिवार सहयोग किया करते थे। अब दो वर्षों से उस परिवार की भी दो महिलाएं छठ कर रही हैं।

    इस बार भी वहां के भारतीय परिवारों के साथ नुट्टीपोरन पारजुगलांग छठ पर्व कर रही हैं। थाइलैंड में रहने वाले सतीश शुक्ला, ब्रजेश शुक्ला, एनके गुप्ता आदि बताते हैं कि छठ व्रत के लिए सूप-डाला-फल यहां आसानी से उपलब्ध हो जाते हैं।

    थाई परिवारों के सदस्य पहले कौतूहल से भारतीयों को छठ पर्व मनाते देखा करते थे। धीरे-धीरे घुलमिल कर व्रत में सहयोग करने लगे। अर्घ्य भी देने लगे। अब उन थाई परिवारों की कुछ महिलाएं व्रत भी करने लगी हैं।

    मनोकामना पूर्ण होने के बाद छठ में आंचल पर नाच की परंपरा

    बदलते दौर में बहुत कुछ बदल गया। व्रत-त्योहारों पर आधुनिकता के रंग चढ़ गए। समय के साथ कई परंपराएं भी समाप्त हो गईं, लेकिन सूर्योपासना के महापर्व छठ में आज भी परंपराएं जीवित हैं।

    सीतामढ़ी में भगवान सूर्य को दूध और जल से अर्घ्य देने के साथ साड़ी के आंचल पर नटुआ (पुरुष नर्तक) को नचाकर छठ माता का आभार जताने की परंपरा है। स्त्री का रूप धर पुरुष नर्तक को नचाने की यह परंपरा वर्षों से है। रोग से मुक्ति, संतान प्राप्ति व सुखमय जीवन के लिए व्रती छठ माता से मनौती मांगती हैं।

    पूरी होने पर साड़ी के आंचल पर नटुआ को नचाती हैं। ऐसी मान्यता है कि इससे छठ माता खुश होती हैं। जिले के रीगा, सुप्पी, बथनाहा सहित विभिन्न ग्रामीण इलाकों में छठ घाट पर ऐसे दृश्य सांध्यकालीन व उदीयमान सूर्य को अर्घ्य के दिन दिखते हैं। छठ घाट पर व्रती अर्घ्य देने के बाद आंचल पर नटुआ नाच कराती हैं।

    इसके लिए नर्तक व उसकी मंडली को पहले से बुक करना होता है। इसके लिए चार से पांच हजार रुपये तक खर्च करना पड़ता है। व्रती के आंचल पर नाचने के बाद परिवार की अन्य महिलाएं भी आंचल पर अगर नटुआ नचाती हैं तो नर्तक उनसे नेग स्वरूप पैसे लेता है।

    पिछले आठ साल से व्रत करने वाली रीगा के रेवासी गांव निवासी ममता देवी का कहना है कि अपने घर-परिवार से जुड़ी कोई मनोकामना के लिए छठी माई से विनती करते हैं।

    जब वह पूरी हो जाती है तो उसके बदले में संकल्प पूरा किया जाता है। कोई मिट्टी का हाथी चढ़ाता है तो कोई केले का घौद चढ़ाता है। कोई कोसी भरता है तो कोई आंचल पर नाच करा छठी माई का आभार जताता है।

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