सुखी जीवन के लिए धन का कोई महत्व नहीं
बड़े महानगर हो या छोटे गांव हर एक व्यक्ति पैसे के पीछे भागता प्रतीत होता है। नि:संदेह पै
बड़े महानगर हो या छोटे गांव हर एक व्यक्ति पैसे के पीछे भागता प्रतीत होता है। नि:संदेह पैसा जीवन के लिए अति आवश्यक है, लेकिन पैसे के लिए मूल्यों से समझौता कब तक? कब तक इंसान पैसे के लिए जीवन के वास्तविक सुख से वंचित रहेगा?
हम जिस पैसे के पीछे भागते हैं, क्या वास्तव में वही पैसा जीवन के सुख का आधार है. यह ¨चतन का विषय है। बचपन से ही हम पढ़ते सुनते आ रहे हैं कि जीवन के लिए अन्य उपलब्ध साधनों में पैसे का महत्व सबसे कम है। धन गया तो समझो कुछ नहीं गया या पैसे से तुम बिस्तर खरीद सकते हो नींद नहीं, आदि बातें आज भी अक्षरश: सत्य प्रतीत होती हैं।
आदि काल से ही धन का महत्व था, है और रहेगा। धन के महत्व को नकारा नहीं जा सकता, लेकिन क्या धन अर्जित करने की कोई सीमा है? किसी से पूछो तो वह तपाक से उत्तर देगा कि मुझे तो ढेर सारा पैसा चाहिए, कितना उसे खुद भी नहीं पता। वस्तुत: व्यक्ति पैसे की कोई सीमा तय नहीं करता, जिसके पास जितना आता है उसकी भूख उतनी ही बढ़ती जाती है। देश समाज पर संकट आने की स्थिति में यही पैसे वाले लोग अधिकतम लाभ लेने के लिए वस्तु या सेवा का मूल्य कई गुना बढ़ा देते हैं। इतिहास इस बात का प्रत्यक्ष गवाह है। जैसे बाढ़ आदि आपदा आने में वहां के व्यापारी वस्तुओं के दाम कई गुना बढ़ा देते हैं। यह बात छोटे स्तर से लेकर बड़े-बड़े उद्योगपतिओं पर लागू होती है। जैसे लगता है कि यही मौका है लूट लो।
आजकल मनुष्य का मात्र एक ही उद्देश्य रह गया है, पैसा कमाना। भले ही उसके लिए कोई भी मूल्य चुकाना पड़े। पैसे के लिए लोग रिश्तों-नातों की भी परवाह नहीं करते। छोटे से बच्चे को जीवन का लक्ष्य पैसा कमाना ही बताया जाता है। जैसे अन्य कोई लक्ष्य हो ही नहीं। मानस की निम्नलिखित पंक्तियों से पता चलता है की यह मनुष्य का शरीर बड़े ही भाग्य से मिला है।
बड़े भाग मानुस तन पावा, सुर दुर्लभ सब ग्रंथ¨ह गावा
साधन धाम मोक्ष कर द्वारा, पाइ न जेहि परलोक सवारा
हमारा यह मानव शरीर परमात्मा की प्राप्ति के लिए हमें साधन के रूप में मिला है, किसी भी अन्य योनि यह सुविधा उपलब्ध नहीं देवताओं को भी यह अवसर उपलब्ध नहीं। फिर पैसा कमाने के लिए इस शरीर का दुर्पयोग क्यों? जब दुनिया की समस्त दौलत देकर भी व्यक्ति जीवन का एक क्षण नहीं खरीद सकता तो उस दौलत के लिए अपना पूरा जीवन लगाना कहां तक उचित है? याद रखें हमारे जीवन पद्धति के मूल ग्रंथों एवं शास्त्रों में तीन तरह के आनंद बताए गए हैं। प्रथम विषयानंद: इस आनंद में भौतिक और दैहिक सुख जिसे अज्ञानतावश हम सबसे बड़ा आनंद समझते हैं। दूसरा ब्रह्मानंद: जब जीव को परमात्मा की अनुभूति होने लगती है, और तीसरा परमानन्द: जब जीव का स्वयं परमात्मा से साक्षात्कार होता है। हमें मिला मानुष तन परमात्मा की प्राप्ति के लिए एक साधन है, इस साधन का सद्धपयोग ना करने वाला जीव कभी समय को, तो कभी अपने कर्म को, या फिर ईश्वर को व्यर्थ ही दोष लगाता है।
कालहि कर्महि ईस्वरहि मिथ्या दोष लगाईं
भारतीय ¨चतन में जीव को आत्मा और शरीर में विभक्त किया गया है। शरीर की सोच सिर्फ स्वयं तक सीमित है, जैसे मेरा हाथ, मेरा पैर। मगर आत्मा, परमात्मा का भाग होने के कारण सबके लिये सोचती है। मतलब जैसे कड़ाके की ठंड में शरीर स्वयं के लिये रजाई की व्यवस्था कर नि¨श्चत हो जाएगा। परंतु, आत्मा सबके लिए व्यवस्था बनाने का उपाय सोचेगी। कभी-कभी हमारे संज्ञान में आता है कि एक-एक पैसे के लिए जीतोड़ मेहनत करने वाले मनुष्य विभिन्न व्यसनों आदि में धन का दुप्रयोग करते हैं।
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