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    देसी मछलियों की प्रजाति को निगल रही नए प्रभेद वाली मछली

    By Edited By:
    Updated: Mon, 20 Jun 2016 05:00 PM (IST)

    (बेगूसराय) : बरसात का मौसम आते ही लोगों को देसी मछलियों का स्वाद याद आने लगता है। जो अब वि

    (बेगूसराय) : बरसात का मौसम आते ही लोगों को देसी मछलियों का स्वाद याद आने लगता है। जो अब विलुप्त होने की कगार पर पहुंच गई है। देसी मछली बगैर लागत के आमदनी का बड़ा स्रोत भी है। विकसित प्रभेद की मछली से अलग इसका स्वाद होता है। देसी मछलियां बरसात के मौसम में अधिक विकसित होती तथा प्रकृति प्रदत्त आहार खाकर ही पलती बढ़ती हैं। इसके ऊपर किसी तरह का खर्च नहीं होता। परंतु, वर्षा कम होने से निचले भूभाग के पानी में पलने वाली देसी मछलियां विलुप्त होने के कगार पर पहुंच गई है।

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    बड़े बड़े जल ग्रहित क्षेत्र :

    क्षेत्र के काबर झील जो करीब 16 सौ एकड़ भूमि में फैली है। इसके अलावा बड़े-बड़े चौरों में कसंधा, दासीन, शिलठा, कारू गमैल, भंसी चौड़ी, बलुआड़ा, बंडी समेत कई अन्य छोटे-बड़े चौर इलाके हैं, जिसमें देसी मछली बहुतायत पाए जाते रहे हैं। वर्षा कम होने से देसी मछली का दर्शन दुर्लभ होते जा रहा है।

    देसी प्रभेद की मछलियां : प्रकृति प्रदत्त देसी प्रभेद की मछली खाने में स्वादिष्ट होती है। यह मछलियां हैं कवैय, चेंगा, बुआरी,मोई, ¨सगही, मांगुर, इचना, पोठी, ढलवा, गरैय, टेंगरा, गैंची, वामी, सौरी, पटैहिया आदि हैं। इसकी वृद्धि चौरों में जल रहने पर भारी मात्रा में होती है। इन मछलियों पर किसी तरह का खर्च भी उठाना नहीं पड़ता है। प्रत्येक वर्ष इन मछलियों का शिकार लोग जाल लगाकर, बंसी से तथा अंत में पानी को एक भाग से दूसरे भाग में पंपसेट से बांट कर करते थे। फिर भी दूसरे सीजन में स्वत: पानी में ये देसी मछलियां बड़ी मात्रा में पाए जाने लगते थे। इससे ज्ञात होता है कि इन देसी मछलियों में प्रजनन की क्रिया काफी होती है। जिससे देसी मछली चौरों में बहुतायत मात्रा में पाए जाते रहे हैं।

    कई परिवारों का होता था भरण-पोषण :

    काबर क्षेत्र हो या चौर, इसमें देसी मछली का शिकार कर क्षेत्र के करीब तीन सौ परिवार से अधिक लोगों की जीविका चलती थी। जिसमें रजौर, मनिकपुर, गढपुरा, कोरैय, मालीपुर, कुम्हारसो, सोनमा के लोग शामिल हैं। गढ़पुरा के गरीब मुखिया, कुम्हारसो के सोने लाल मुखिया, सोनमा के अंगद मुखिया समेत कई अन्य का कहना है कि करीब दो दशक से वर्षा कम हो रही है। जिससे देसी मछली अब नाम मात्र का मिल पाती है। अब देसी मछलियों की कमी से इससे जुड़े लोग दूसरे व्यवसाय में लग गए हैं।

    नए प्रभेद वाली मछलियां आहार बना रही देसी मछलियों को :

    लोगों का कहना है कि चौर वाले पानी में भी नए प्रभेद की मछलियों का पालन होने लगी है। उन्नत प्रभेद की बड़ी-बड़ी मछलियां देसी मछली को आहार के रूप में खा जाया करती है। इससे भी देसी मछलियों की कमी हो रही है। देसी मछली को नुकसान पहुंचा रहे नए वेराइटी की मछली में ग्लास कप, सिल्वर कप, पेटला समेत कई अन्य प्रजाति के हैं जो इन देसी मछली को खाकर समाप्त कर रही है। जबकि देसी मछली के रख-रखाव या उसके पौष्टिक आहार के ऊपर खर्च नहीं के बराबर होता है। फिर भी इसमें वृद्धि एवं प्रजनन काफी मात्रा में होती है।

    इसके बचाव के उपाय : इसके लिए सरकारी स्तर से प्रयास की जरूरत है। चौर के निचले भूभाग में सालों भर पानी जमा रखे जाने के उपाय करने की आवश्यकता है। इन चौरों में नए प्रभेद के नस्ल के मछली का बीज नहीं डाला जाना चाहिए। तब ही देसी मछली को बचाई जा सकती है

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