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    अध्यात्मिक जगत की दयामयी देवी हैं मां सतबहिनी

    By JagranEdited By:
    Updated: Mon, 25 Sep 2017 03:03 AM (IST)

    औरंगाबाद। मगध की धरती वेदकालीन अध्यात्म का प्रमुख केंद्र रही है। ऋषि मुनियों के चरण से मगध की धरती वेदकालीन अध्यात्म का प्रमुख केंद्र रही है।

    अध्यात्मिक जगत की दयामयी देवी हैं मां सतबहिनी

    औरंगाबाद। मगध की धरती वेदकालीन अध्यात्म का प्रमुख केंद्र रही है। ऋषि मुनियों के चरण से पवित्र भूमि गया से अलग हो नए जिले का रूप में बना औरंगाबाद जिले में अध्यात्म का स्वरूप पौराणिक काल से ही सबल रहा है। एक तरफ जहां विश्व प्रसिद्ध देव सूर्य मंदिर, उमगा सूर्य मंदिर हैं तो जिले के दक्षिणी पश्चिमी भाग का अम्बा एवं नवीनगर में सात देवियों का महत्वपूर्ण मंदिर है। इसी में से एक अनरराज्यीय भक्तों की आस्था का प्रतीक बन चुकीं मां सतबहिनी मंदिर है। नवरात्र का प्रारंभिक दिनों से ही हर सुबह यहां देवी भक्तों की भीड़ से मंदिर प्रांगण भरा रहता है। शाम में हजारों स्त्री-पुरूष मां की वेदी पर घी के दीये जलाकर मनोकामनाएं पूर्ण करने की मांग करते हैं। दूर-दूर के श्रद्धालु आकर मां सतबहिनी की पूजा कर मन्नतें मांग रहे हैं।

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    सुबह चार बजे से ही लगती है भीड़

    सुबह चार बजे से ही मंदिर में पूजा अर्चना करनेवालों की भीड़ उमड़ती है। लाल पुष्पों से सजी डोलनी ले महिलाएं मां को प्रसन्न करने हेतु नारियल, प्रसाद, चुनरी का चढ़ाया करती है। वाहन चालक मंदिर के पास से गुजरने के पूर्व यहां का प्रसाद लेना नहीं भूलते।

    कैसा है मां सतबहिनी का स्वरूप

    सर्वप्रथम मंदिर के स्वरूप को जाने तो सात बहन एवं एक भैरो बाबा का पिंड की स्थापना वेदी पर है। ठीक उसके उपर मां की चांदी धातु से प्रतीकात्मक स्वरूप बना है। पूर्व में यहां जिस बरगद के नीचे मां की वेदी थी उसे भी दक्षिण भारतीय वास्तुकारों ने प्रतिकृति के रूप में उकेरा है। दूसरे तल पर मां दुर्गा, हनुमान जी, गणेश जी एवं भगवान शिव का ¨लग की स्थापना की गयी है जो राजस्थान के जयपुर से लाकर लगाई गई है। सफेद संगमरमर से बनी मूर्तियां मन को मोहित करनेवाले अत्यन्त सुन्दर है। मंदिर का निर्माण में दक्षिण भारत के वास्तुकारों ने नागर एवं द्रविड़ शैली के मिश्रण से अद्वितीय मंदिर का रूप दिया है। गुम्बद में नागर शैली का प्रतीकात्मक स्वरूप को स्थान दिया गया है। वास्तुकारों ने मंदिर के आधार भाग को वर्गाकार बनाया है वहीं गर्भगृह के उपर का चारों ओर का भाग पिरामिड नुमा है जिससे द्रविड़ शैली का आभास होता है। मंदिर नवीनतम स्थापत्य कला का अनूठा उदाहरण माना जा रहा है।

    यहां लगता है 15 दिवसीय आद्रा मेला

    मूलत: औरंगाबाद जिला कृषि पर आधारित जिला है। किसान आद्रा नक्षत्र में मां सतबहिनी से फसल की अच्छी उपज की कामना करते हैं। धन-धान्य से सुखी बनाने हेतु मां की वेदी पर चुनरी चढ़ाते हैं। नारियल की बलि देकर देवी की बलि प्रथा का भी पालन किया जाता है। भव्य मेले में आसपास के जिले के अलावा झारखण्ड, उत्तरप्रदेश आदि राज्यों से भी श्रद्धालु यहां पहुंचते हैं।

    दयामयी देवी मां सतबहिनी करती हैं मनोकामनाएं पूर्ण

    कई दशकों से मां सतबहिनी मंदिर पर पूजा-अर्चना का रिवाज है। अनेक श्रद्धालु ऐसे हैं जिन्हें मां पर अटूट भरोसा है। पुजारी शिव प्रसाद पांडेय बताते हैं कि मंदिर जिस समय छोटे स्वरूप में बना था उस वक्त भी यहां हजारों श्रद्धालु पूजा अर्चना करते थे। ऐसा माना जाता है कि मां से मांगी गई हर मुरादें लोगों की पूरी हुई है। यही कारण है कि यहां भक्तों का तांता लगा रहता है। नवरात्र में मंदिर की सजावट की जाती है। नवमी एवं विजया दशमी के दिन लोग अपने अपने परिवार के साथ आकर मां के चरणों में नारियल प्रसाद व चुनरी चढ़ा कर उनसे मन्नतें मांगती है।

    मां सतबहिनी मंदिर की प्रसिद्धि खासकर भक्तों की मनोकामनाएं पूर्ण होने के कारण ही हुई है। मंदिर की स्थापना काल से ही यह सत्य आज तक यथा स्थिति है कि मां सबकी मुरादें पूर्ण करती आईं हैं।

    रामप्रसिद्ध केसरी

    मां सतबहिनी कृपा बरसानेवाली देवी हैं। इनकी महिमा हीं है कि भक्त यहां दौड़े चले आते हैं। रोगग्रस्त व्यक्ति हो या रोजगार चाहने वाले, सब यहां मन्नतें मांगते हैं और पूरी होने पर पूजा अर्चना कर देवी को प्रसन्न करते हैं।

    महेंद्र मिश्र

    चिल्हकी निवासी स्वर्गीय महाराज पांडेय ने मंदिर की स्थापना की थी। उनके भाई को चेचक रोग हुआ था जिससे मुक्ति मां के मंदिर के समीप बरगद पेड़ के नीचे मिली थी। तब से आज तक उक्त स्थल पर मां की पूजा अर्चना कर रहे हैं।

    प्रदीप ¨सह

    नवरात्र का दिन है और मां के नाम से बसे अंबा नगरी में आध्यात्मिक गतिविधि पूरी तरह अध्यात्ममय हो गया है। मां की कृपा से हीं यहां के लोग सुख शांति का अनुभव करते हैं।

    प्रो. अरूण कुमार ¨सह

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