Jitiya 2023: जानिए कौन थे भगवान जीमूतवाहन, जिनकी जितिया के दिन होती है पूजा; संस्कृति व इतिहास से है गहरा नाता
दाउदनगर जिउतिया में गाया जाने वाला एक लोक गीत बताता है कि जिउतिया लोक संस्कृति कितनी पुरानी है। इस दिन महिलाएं जिस जीमूतवाहन की पूजा करती हैं वह वास्तव में राजा थे। उनके पिता शालीवाहन हैं और माता शैब्या। सूर्यवंशीय राजा शालीवाहन ने ही शक संवत चलाया था। ईसवी सन् के प्रथम शताब्दी में 78 वें वर्ष में वे राज सिंहासन पर बैठे थे। वे समुद्र तटीय संयुक्त प्रांत (उड़ीसा) के राजा थे।

उपेंद्र कश्यप, दाउदनगर (औरंगाबाद)। दाउदनगर जिउतिया (Jiutiya) में गाया जाने वाला एक लोक गीत बताता है कि जिउतिया (Jitiya 2023) लोक संस्कृति कितनी पुरानी है। किसी भी लोक संस्कृति का प्रारंभ किन लोगों ने कब किया यह ज्ञात शायद ही होता है। मगर जिउतिया संस्कृति के मामले में कुछ अलग और खास है। "आश्विन अंधरिया दूज रहे, संवत 1917 के साल रे जिउतिया। जिउतिया जे रोपे ले हरिचरण, तुलसी, दमडी, जुगुल, रंगलाल रे जिउतिया। अरे धन भाग रे जिउतिया...।"
कसेरा टोली चौक पर गाया जाने वाला यह गीत स्पष्ट बताता है कि पांच लोगों ने इसका प्रारंभ किया था परंतु सवाल यह है कि क्या वास्तव में किसी लोक संस्कृति का ऐसे प्रारंभ होता है। बीज तो कहीं और होगा। स्वयं कसेरा समाज के लोग यह मानते हैं कि उनके पूर्वजों ने इमली तल का नकल किया था। यानी संवत 1917 या ई. सन् 1860 से पहले इमली तल जो होता था उसका देखा देखी कांस्यकार समाज ने अपने मोहल्ले में शुरू किया।
तब यह समाज आर्थिक रूप से संपन्न तबका था। स्वाभाविक रूप से यह संभव दिखता है कि तब शिक्षा भी इस समाज में पटवा, तांती समाज के अपेक्षाकृत अधिक होगी। नतीजा यहां साहित्य रचा गया और बाद में कभी यह गीत लिखा गया
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प्लेग की महामारी से हुआ संस्कृति का बीजारोपण
इस संस्कृति का बीजारोपण कैसे हुआ होगा। लोक स्मृतियों में जो रचा बसा है उसके अनुसार- कभी प्लेग की महामारी को शांत करने की तत्कालीन समाज की चेष्टा से इस संस्कृति का जन्म हुआ। इसमें कामयाबी मिली लेकिन तब एक महीना तक जो जागरण हुआ वह निरंतरता प्राप्त कर संस्कृति बन गई। पूरा वृत्तांत आप “श्रमण संस्कृति का वाहक-दाउदनगर” पुस्तक में पढ़ सकते हैं।
तब तत्कालीन समाज ने दक्षिण या पश्चिम भारत से ओझा, गुणियों को आमंत्रित किया, दैवीय प्रकोप माने गए प्लेग की महामारी को रोकने के लिए, वे आए और इसे शांत किया। जिसमें जादू-टोना, समेत कई कर्म किए गए। एक माह तक चले इस प्रयास ने परंपरा को जन्म दिया जो कालांतर में संस्कृति बन गई। बाद में नौ दिन और अब मात्र तीन दिवसीय संस्कृति में सिमट गया है।
सामूहिक पूजा की परंपरा
यहां लकड़ी या पीतल के बने डमरुनुमा ओखली रखा जाता है। हिंदी पट्टी में इस तरह सामूहिक जुटान पूजा के लिए कहीं नहीं होता। यहां शहर में बने जीमूतवाहन के मात्र चार चौकों (जिउतिया चौक) पर ही तमाम व्रती महिलाएं पूजा करती हैं।
कौन थे भगवान जीमूतवाहन ?
जिस जीमूतवाहन (Jimutvahan)की पूजा करते हैं वह वास्तव में राजा थे। उनके पिता शालीवाहन हैं और माता शैब्या। सूर्यवंशीय राजा शालीवाहन ने ही शक संवत चलाया था। इसका प्रयोग आज भी ज्योतिष शास्त्री करते हैं। ईसवी सन् के प्रथम शताब्दी में 78 वें वर्ष में वे राज सिंहासन पर बैठे थे।
वे समुद्र तटीय संयुक्त प्रांत (उड़ीसा) के राजा थे। उसी समय उनके पुत्र जीमूतवाहन की पत्नी से भगवान जगन्नाथ (Lord Jagannath) एवं इनके वाहन गरुण से आशीर्वाद स्वरूप जीवित्पुत्रिका की उत्पत्ति हुई। इसी का धारण महिलाएं अपने गले मे करती हैं।
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