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    गोस्वामी तुलसी को नरहरी सुनार ने बनाया संत

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    Updated: Mon, 02 Feb 2015 06:17 PM (IST)

    संवाद सहयोगी, दाउदनगर (औरंगाबाद) : प्रख्यात धर्म-ग्रंथ रामचरित मानस तमाम सनातनियों के हृदय में रचा-ब ...और पढ़ें

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    संवाद सहयोगी, दाउदनगर (औरंगाबाद) : प्रख्यात धर्म-ग्रंथ रामचरित मानस तमाम सनातनियों के हृदय में रचा-बसा है। यह दुर्भाग्य है कि संत तुलसी को पूजा जाता है लेकिन उनको यह ग्रंथ लिखने का गुरुमंत्र देने वाले संत नरहरि सुनार को भूला दिया गया। आज 3 फरवरी को उनकी जयंती है। संत तुलसीदास का जन्म संवत 1554 (सन-1611) में हुआ था। जिनका यज्ञोपवित संस्कार संवत-1561 में संत नरहरिदास ने किया था। इन्हीं के गुरुमंत्र से इन्होंने रामभक्ति के शिखर पर पहुंचकर कालजेयी रचना रामचरितमानस लिखा। मराठी साहित्य में इन पर बहुत कुछ लिखा गया है। इनका जन्म देवगिरी,जिला-औरंगाबाद (महाराष्ट्र) में दीनानाथ सुनार के घर हुआ था। पिता पारम्परिक तौर पर स्वर्णाभूषण निर्माण का कार्य करते थे। इसी व्यवसाय से वे अमीर हो गए और पंढरपुर रहने चले गए। मालूम हो कि इसी पंढरपुर यात्रा पर केंद्रित झाकी महाराष्ट्र की ओर से दिल्ली में 26 जनवरी को राजपथ पर प्रदर्शित किया गया था। संत जी कट्टर शिवोपासक थे पंढरपुर में रहने के बावजूद भी यहा के प्रसिद्ध पान्डुरंग (विष्णु) मंदिर में कभी दर्शन करने नहीं जाते थे। एक दिन एक साहुकार ने उन्हें भगवान पाडुरंग जी के लिए कमरधनी बनाने को कहा बनाकर दिया तो आकार में वह बड़ा हो गया साहुकार ने उन्हें नाप लेने को कहा। समस्या यह थी कि वे पाडुरंग जी के दर्शन नहीं लेना चाहते थे इसलिए अपनी आख पर पट्टी बांध कर वे गये और नाप लेने लगे। इस क्रम में उनका भगवान के पिंड के साथ स्पर्श हुआ कुछ अज्ञात सा, अनुभव हुआ, और फिर अपनी आख की पट्टी खोल दी। साक्षात भगवान पाडुरंग जी का दर्शन हुआ, और यह विश्वास हुआ कि शिव जी एवं पाडुरंग जी एक ही हैं,दोनों में कोई फर्क नहीं है।

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    संत कबीर के गुरुभाई थे संत रविदास : संत कुलभूषण कवि रैदास (रविदास) उन महान संतों में अग्रणी थे जिन्होंने अपनी रचनाओं के माध्यम से समाज में व्याप्त बुराइयों को दूर करने में महत्वपूर्ण योगदान किया। अपनी रचनाओं में उन्होंने ऐसी लोक वाणी का प्रयोग किया कि उसका साधारण जनमानस पर गहरा प्रभाव पड़ा। ऐसा कि आज लोकोक्ति हो गई-मन चंगा तो कठौती में गंगा। आचार्य पं. लालमोहन शास्त्री ने बताया कि वे संत कबीर के गुरुभाई थे। दोनों के गुरु स्वामी रामानंद थे। लगभग 634 वर्ष पहले भारतीय समाज अनेक बुराइयों से ग्रस्त था। इससे मुक्ति की कल्पना भी तब मुश्किल था,वैसे हालात में इनका प्रादुर्भाव किसी तारणहार से कम नहीं। रैदास का जन्म काशी में चर्मकार कुल में हुआ था। उनके पिता का नाम संतोख दास (रग्घु) और माता का नाम कर्मा देवी बताया जाता है। उन्होंने साधु-संतों की संगति से पर्याप्त व्यावहारिक ज्ञान प्राप्त किया था। जूते बनाने के पैतृक व्यवसाय को उन्होंने सहर्ष अपनाया। वे संतों को प्राय मूल्य लिये बिना जूते भेंट कर दिया करते थे। उनके स्वभाव से अप्रसन्न माता-पिता ने रैदास तथा उनकी पत्‍‌नी को अपने घर से अलग कर दिया। तब पड़ोस में ही अपने लिए एक अलग झोपड़ी बनाकर तत्परता से अपने व्यवसाय का काम करने लगे। शेष समय ईश्वर-भजन तथा साधु-संतों के सत्संग में व्यतीत करते और समाज को दिशा देते।