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    आध्यात्मिक शक्ति का केंद्र है मखदुम शाह का दरगाह

    By JagranEdited By:
    Updated: Mon, 20 Nov 2017 05:39 PM (IST)

    इतिहास के पन्नों में अपना स्थान रखने वाला अरवल की भूमि अध्यात्म और संस्कृ

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    आध्यात्मिक शक्ति का केंद्र है मखदुम शाह का दरगाह

    जागरण संवाददाता,अरवल

    इतिहास के पन्नों में अपना स्थान रखने वाला अरवल की भूमि अध्यात्म और संस्कृति का केंद्र रहा है।इस भूमि में वह आकर्षण शक्ति है कि जो भी यहां आते हैं यहां के लोगों के बीच रम जाते हैं। इन्हीं गुणों को बखान करता है जिला मुख्यालय से सटे सोन तट पर अवस्थित मखदुम शाह का दरगाह। इसके पीछे की अगर कहानी की बात की जाए तो आध्यात्म के सामने झूठ व फरेब के बेनकाब होने का प्रमाण मिलता है। 13वीं शताब्दी में इस स्थान पर मखदुम साहब आए थे और इसी स्थान पर अपना डेरा डालकर रहने लगे। वहां पूर्व में चेरो खरबार जाति के लोग निवास करते थे। इनके बारे में ऐसी दंत कथाएं हैं कि उस जाति के लोग लोहा का सिक्कड़ खींचते थे और यह भी कहा जाता है कि उस समय सोन नदी में पारस पत्थर था। जिसके स्पर्श से लोहा सोना बन जाता था। जिसे बेचकर वे लोग अपने परिवार का भरण पोषण करते थे। मखदुम साहब उस पेशे को गौर से निहारते रहते थे और अपनी साधना में सदैव लगे रहते थे। मखदुम साहेब को चिढ़ाने के ख्याल से वे लोग किसी व्यक्ति को मुर्दा बनाकर उनके पास ले जाते थे और कहते थे कि जनाजों के दफन के लिए कलमा पढ़ दीजिए। मखदुम साहब सीधा साधा इंसान थे।वे उनलोगों की चाल को समझे बिना कलमा पढ़ देते थे। कलमा पढ़ने के बाद वे लोग नकली मुर्दा पर कफन खींच लेते थे और मुर्दा बना हुआ व्यक्ति खुशी मनाता हुआ नाचने लगता था। इतना ही नहीं साथ आए लोग अपनी शैतानी प्रवृति को उजागर करते हुए ताली बजाकर मखदुम साहेब का उपहास भी उड़ाने लगते थे। वैसे लोगों के बेतुके हरकत से मखदुम साहब काफी उब चुके थे। एक दिन की ऐसी घटना है कि वे लोग पुन: नकली मुर्दा लेकर उनके पास पहुंचे और कलमा पढ़ने की बात कहने लगे। अजीज होकर मखदुम साहब ने उनलोगों से तीन बार पूछा कि क्या सचमुच कलमा पढ़ दूं। तीनों बार उनलोगों ने हां कहा। उन्होंने कलमा पढ़ दिया।कलमा पढ़ने के बाद मजाक के उद्देश्य से ज्योंहि उनलोगों ने कफन हटाया तो वह सचमुच में मुर्दा हो गया था। साथ ही कुछ ही देर बाद उनलोगों को भी खून उल्टी होने लगी। यह देख वहां रहने वाले लोगों में अफरा तफरी मच गया। सभी जाकर माफी मांगने लगे। मखदुम साहब ने कहा कि तुम सभी तभी बचोगे जब इस जगह को छोड़कर बराबर पहाड़ के पास कौआ डोल पहाड़ी चले जाओ। वे लोग यहां से चले गए। उन दुष्टों के चले जाने के बाद मखदुम साहब खुदा की इबादत में लग गए। एक दिन याहिया मनेरी साहब उनसे मिलने आए और उन्होंने उन्हें मखदुम का दर्जा दे दिया तब से मखदुम साहब आध्यात्मिक शासक सह सम्मान साहब हो गए। उनका प्रधान कार्य अरवल की रक्षा करना,हिन्दु -मुस्लिम के बीच भाईचारा कायम रखना और अपने भक्तों के मुरादों को पूरी करने के लिए अल्लाह से इबादत करना था। आज भले ही मखदुम साहब सह शरीर नहीं हैं लेकिन इनके मजार में इतनी शक्ति जरूर है कि सच्चे मन से मन्नत मांगने पर मनचाही मुरादें पूरी हो जाती है।

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    सुनें स्थानीय लोगों की

    इस मजार पर चादर पोशी के लिए बड़े-बड़े हस्ती आया करते हैं। ऐसी मान्यता है कि यहां चादरपोशी करने वाले लोगों की हर मुराद पूरी होती है।

    मो अख्तर

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    मखदुम साहब का मजार अपने आप में आस्था का केंद्र है। इसके प्रसिद्धि के लिए जो कार्य प्रशासनिक स्तर से होना चाहिए वह नहीं हो पाया है। यदि इसपर प्रशासन का ध्यान और अधिक होता तो इसकी प्रसिद्धि और बढ़ती।

    पयामी गुलरेज

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