दास प्रथा को याद कर आज भी भर जाती हैं आंखें
अररिया। मानव समाज में जितनी भी संस्थाओं का अस्तित्व रहा है उनमें सबसे भयावह दासता की प्रथा है

अररिया। मानव समाज में जितनी भी संस्थाओं का अस्तित्व रहा है उनमें सबसे भयावह दासता की प्रथा है। मनुष्य के हाथों मनुष्य का ही बड़े पैमाने पर उत्पीड़न इस प्रथा के अंतर्गत हुआ है। दास प्रथा को संस्थात्मक शोषण की पराकाष्ठा कहा जा सकता है। ये कहना है बसैठी निवासी 80 वर्षीय विद्यानंद मंडल का। वे कहते है आज भी दास प्रथा को याद कर उनकी आंखें भर जाती है। यद्यपि उस समय उनका बाल्यकाल था मगर दास प्रथा की भयावहता को याद कर आज भी उनकी आंखें भर आती है। उन्होंने बताया कि दास प्रथा की उत्पत्ति का संबंध, खेती के विकास से भी बताया जाता है। उसके लिए अतिरिक्त श्रम की आवश्यकता थी। इसलिए आरंभ में ताकत के बल पर लोगों को खेतों में काम करने के लिए बाध्य किया जाने लगा। कुछ लोग जो प्रकृति-आधारित खेती की अनिश्चितता के स्थान पर निश्चित आजीविका को पसंद करते थे, वे दूसरों को अपना गुलाम बना लेते थे। और जम कर उनका शोषण करते थे। इस प्रथा में उनके जान- पहचान के भी कई लोग शिकार हो चुके है। इसमें एक इंसान ही दूसरे इंसान को अपना गुलाम बना लेता था और जी भर का उसका शोषण किया जाता था। युद्ध के बंदी होते थे शिकार दास प्रथा के विषय में जानकारी साझा करते हुए शहर के बुजुर्ग कृष्णमोहन झा ने बताया कि दास प्रथा के द्वारा प्राय: ऋणग्रस्त अथवा युद्धों में बंदी होने वाले व्यक्तियों को दास बनाया जाता था। फिर भी प्राचीन भारत में यूरोप की भांति दास प्रथा न तो व्यापक थी और न ही दासों के प्रति वैसा क्रूर व्यवहार होता था। भारत ब्रिटिश शासन के समय 1843 ई. में इस प्रथा को बंद करने के लिए एक अधिनियम पारित कर दिया गया था। दास प्रथा की शुरुआत कई सदियों पहले ही हो चुकी थी। माना जाता है कि चीन में 18वीं-12वीं शताब्दी ईसा पूर्व गुलामी प्रथा का जिक्र मिलता है। भारत के प्राचीन ग्रंथ मनुस्मृति में भी दास प्रथा का उल्लेख किया गया है। वर्ष 1867 में करीब छह करोड़ लोगों को बंधक बनाकर दूसरे देशों में गुलाम के तौर पर बेच दिया गया। भारत में मुस्लिमों के शासन काल में दास प्रथा में बहुत वृद्धि हुई। यह प्रथा भारत में ब्रिटिश शासन स्थापित हो जाने के उपरान्त भी बहुत दिनों तक चलती रही।
दास प्रथा के खिलाफ पूरी दुनिया में आवाज हुई बुलंद दास प्रथा के विषय में पुराने दिनों को याद करते हुए लॉ कॉलेज के सचिव 78 वर्षीय बीके मिश्रा ने बताया कि उन दिनों दास प्रथा के खिलाफ पूरी दुनिया मे आवाज बुलंद हुई थी। भारत ब्रिटिश शासन के समय 1843 ई में इस प्रथा को बंद करने के लिए एक अधिनियम पारित कर दिया गया था। यद्यपि भारत में बंधुआ मजदूरी पर पाबंदी लग चुकी है, लेकिन फिर भी सच्चाई यह है कि आज भी यह अमानवीय प्रथा जारी है। बढ़ते औद्योगिकरण ने इसे बढ़ावा दिया है। साथ ही श्रम कानून के लचीलेपन के कारण भी मजदूरों के शोषण का सिलसिला जारी है। शिक्षित और जागरूक न होने के कारण इस तबके की तरफ किसी का ध्यान नहीं गया। संयुक्त राष्ट्र संघ को ऐसे श्रम कानून का सख्ती से पालन करवाना चाहिए, जिससे मजदूरों को शोषण से निजात मिल सके। इंसानों की होती है खरीद-फरोख्त दास प्रथा के विषय में जानकारी देते हुए अररिया कॉलेज के प्रधानाचार्य मो. रउफ ने बताया कि ये सच है कि दास प्रथा को बहुत पहले से ही अवैध घोषित किया जा चुका है मगर पूरी दुनिया में आज भी दास प्रथा जैसी अमानवीय प्रथा जारी है और जानवरों की तरह इंसानों की खरीद -फरोख्त की जाती है। इन गुलामों से कारखानों और बागानों में काम कराया जाता है। उनसे घरेलू काम भी लिया जाता है। संयुक्त राष्ट्र संघ की एक रिपोर्ट के अनुसार मादक पदार्थ और हथियारों के बाद तीसरे स्थान पर मानव तस्करी है। एक अन्य रिपोर्ट में कहा गया है कि दुनियाभर में करीब पौने तीन करोड़ गुलाम हैं। वस्तुओं की तरह ऐसे इंसानों से काम लिया जाता है जिसपर अविलंब कड़े कानून लाकर रोक लगाने की आवश्यकता है।
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