Lok Sabha Election 2024: प्रतिनिधित्व, किसका, कितने का! चुनाव का तरीका बदलने की जरूरत
Lok Sabha Election 2024 75 साल में देश में बहुत कुछ बदल गया है। अब देश में एक वर्ग चुनाव के तरीके को बदलने की आवाज उठा रहा है। उनका तर्क है कि फर्स्ट पास्ट द पोस्ट व्यवस्था में सभी मतदाताओं को समुचित प्रतिनिधित्व नहीं मिल पाता है। पढ़ें इस लेख में क्या देश में चुनाव के तरीके को बदलने की जरूरत है?
जागरण, नई दिल्ली। भारत में जनप्रतिनिधि फर्स्ट पास्ट द पोस्ट प्रणाली से चुने जाते हैं। इस व्यवस्था में जिस उम्मीदवार को ज्यादा वोट मिलते हैं, वही विजेता होता है। इसमें बड़ी कमी यह है कि जीतने वाला उम्मीदवार कम वोट पाकर भी उस क्षेत्र का प्रतिनिधि बन जाता है, जबकि क्षेत्र के ज्यादातर मतदाता उसे वोट नहीं करते हैं। इस तरह से चुनाव का नतीजा मतदाताओं की बड़ी संख्या की राय के विपरीत होता है।
क्या है आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली
भारत में एक वर्ग निर्वाचन के लिए आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली अपनाने की मांग पर जोर दे रहा है। इस प्रणाणी में राजनीतिक दलों को मिले मतों की संख्या के अनुपात में सीटें मिलती हैं। इस व्यवस्था में हर एक वोट चुनाव के परिणाम में योगदान करता है।
आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली का सिद्धांत कहता है कि अगर किसी पार्टी को 40 प्रतिशत वोट मिलता है तो उसे 40 प्रतिशत सीटें मिलनीं चाहिए।
यह व्यवस्था सुनिश्चित करती है कि सरकार वास्तविक बहुमत यानी 50 प्रतिशत से अधिक मत हासिल करने वाली हो। दुनिया के तमाम लोकतांत्रिक देशों में इसी व्यवस्था से सरकारें चुनीं जाती हैं।
विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र में यह पड़ताल का मुद्दा है कि क्या आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली मतदाताओं की राय को बेहतर तरीके से परिलक्षित करती है।
चुनाव का तरीका बदलने की जरूरत
जब भारत में संविधान लागू हुआ तो हमने ब्रिटेन की तर्ज पर फर्स्ट पास्ट द पोस्ट सिस्टम अपनाया। इस व्यवस्था में जो उम्मीदवार क्षेत्र में सबसे ज्यादा वोट पाता है वह जीतता है। लेकिन पिछले 75 वर्षों में चीजें बहुत बदल गईं हैं।
वर्तमान में जारी लोकसभा चुनाव के पहले चरण में 102 लोकसभा सीटों पर 1,618 उम्मीदवार मैदान में थे। यानी हर सीट पर लगभग 16 उम्मीदवार। इसका मतलब है कि 50 प्रतिशत से कम वोट पाकर कोई भी उम्मीवार जीत सकता है।
2019 में 201 सांसदों को 50 फीसदी से कम वोट मिले थे
2014 आम चुनाव में 543 में से 343 उम्मीदवार 50 प्रतिशत से कम वोट पाकर जीते थे। 2019 में, 201 जीतने वाले उम्मीदवारों को 50 प्रतिशत से कम वोट मिले थे। क्या ऐसे जनप्रतिनिधि क्षेत्र के सभी या अधिकांश मतदाताओं का प्रतिनिधित्व करते हैं? हमें इस बात को याद रखना चाहिए कि भारत दुनिया में सबसे ज्यादा विविधता वाला देश है।
यहां 17 प्रमुख भाषाएं हैं, सैकड़ों बोलियां और जातियां हैं। दुनिया के सभी प्रमुख धर्मो को मानने वाले भारत में रहते हैं। इसका मतलब है कि बहुत से लोगों का संसद में कोई प्रतिनिधित्व नहीं है।
2014 में सत्तारूढ़ दल को मिले इतने वोट
2014 के चुनाव में देश में कुल 83.4 करोड़ पंजीकृत मतदाता थे। वोट करीब 66.4 प्रतिशत या 55.4 करोड़ मतदाताओं ने किया। सत्तारूढ़ दल के विजेताओं को डाले गए कुल वोट का 25.2 प्रतिशत और कुल मतदाताओं का 16.7 प्रतिशत वोट मिला।
सत्तारूढ़ दल जिन सीटों पर हार गई, वहां का वोट भी मिला लें तो उसे कुल वोटों का 31 प्रतिशत वोट मिला। वहीं सत्तारूढ़ दल को 282 सीटें मिलीं। सरकार बनाने के लिए 273 सीटों की जरूरत होती है। सरकार बनाने वाले दल ने सहयोगियों के साथ मिल कर 336 सीटें हासिल कीं।
2019 में 37 फीसदी मत मिले
2019 के आम चुनाव में देश में कुल 91.2 करोड़ पंजीकृत मतदाता थे। इसमें से करीब 67 प्रतिशत या 62 करोड़ मतदाताओं ने वोट दिया। सत्तारूढ़ दल के जीतने वाले उम्मीदवारों को कुल डाले गए वोट का 31 प्रतिशत और कुल मतदाताओं की संख्या का 27 प्रतिशत वोट मिला। हारने वाले उम्मीदवारों को मिले वोट को जोड़ लें तो सत्तारूढ़ दल को कुल वोट का 37 प्रतिशत मिला।
पार्टी को 303 सीटें मिलीं और सत्तारूढ़ गठबंधन को 353 सीटें मिलीं। ये बताता है कि सत्तारूढ़ दल ने 2014 में 31 प्रतिशत वोट के साथ 52 प्रतिशत सीटें और 2019 में 37 प्रतिशत वोट के साथ 56 प्रतिशत सीटें हासिल कीं।
तीसरे स्थान पर ही बसपा
वहीं बसपा 2014 में वोट की संख्या के मामले में तीसरे स्थान पर रही लेकिन उसे कोई सीट नहीं मिली। सवाल यह है कि सत्तारूढ़ दल को वोट नहीं देने वाले 60 प्रतिशत या इससे अधिक मतदाताओं को क्या पर्याप्त प्रतिनिधित्व मिला?
सवाल यह है कि दूसरे देशों ने इस समस्या का समाधान कैसे किया? क्या भारत सरकार ने कभी मतों और सीटों के बीच अंतर पर कभी गौर किया है?
अमेरिका में जनता चुनती है राष्ट्रपति और गवर्नर
अमेरिका में दो पार्टी सिस्टम है। अमेरिका में किसी क्षेत्र से जीतने वाला जनप्रतिनिधि, राज्य का गवर्नर या राष्ट्रपति कुल पड़े वोट का 50 प्रतिशत से अधिक वोट हासिल करता है। अमेरिका में राष्ट्रपति और गवर्नर को मतदाता सीधे चुनते हैं। यूरोप में आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली है।
उन्होंने इस व्यवस्था को अपना कर पार्टियों के वोट और सीट के बीच अंतर को सही किया है। इस व्यवस्था में प्रत्येक मतदाता के पास दो वोट होते हैं। एक वोट क्षेत्र के स्थानीय उम्मीदवार के लिए और दूसरा पार्टी के लिए। पार्टी को मिले वोट के आधार पर, कुछ सीटें हर एक पार्टी को आवंटित की जाती है।
तो क्या बसपा पाती 20 सीटें?
2014 के चुनाव में बसपा को कुल पड़े मतों का 4.2 प्रतिशत मत मिला था। भारत में आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली होती तो बसपा को करीब 20 सीटें मिलतीं। यूरोप के 28 देशों में से 21 देश में इस प्रणाली के आधार पर चुनाव होते हैं।
फ्रांस में अलग है सिस्टम
एक तीसरा सिस्टम फ्रांस का है। यहां जीतने वाले उम्मीदवार के लिए कुल डाले गए वोट का कम से कम 50 प्रतिशत + 1 वोट पाना जरूरी होता है। अगर किसी उम्मीदवार को इतना वोट नहीं मिलता है तो सिर्फ शीर्ष दो उम्मीदवारों के बीच दूसरा राउंड होता है। अगर भारत में यह सिस्टम होता तो 2014 में 343 सीटों पर और 2019 में 201 सीटों पर दूसरा राउंड होता।
भारत में इस सिस्टम पर दो बार हुआ विचार
क्या भारत सरकार ने इन मुद्दों पर विचार किया है? इसका जवाब है, हां, एक बार नहीं कम से कम दो बार। जस्टिस जीवन रेड्डी लॉ कमीशन और जस्टिस एमएन वेंकटचेलैया वर्किंग कमेटी ने इस पर अपनी सिफारिशें दीं हैं।
दोनों ने कहा है कि हमें एक वैकल्पिक सिस्टम की जरूरत है, लेकिन किसी सरकार ने इस पर कदम नहीं उठाया। समस्या यह है कि सभी राजनीतिक दल चाहते हैं कि किसी भी बदलाव से उनको फायदा हो, देश को नहीं।
एक सीट पर दो सांसदों की व्यवस्था
भारत में सबसे ज्यादा वोट पाने वाला उम्मीदवार जीतता है और वह 50 प्रतिशत से कम वोट पाकर भी चुना जाता है। मतदाताओं का बड़ा हिस्सा जो उसे वोट नहीं करता है, उसका कोई प्रतिनिधित्व ही नहीं होता है। ऐसे लोगों को प्रतिनिधित्व देने का एक तरीका यह है कि एक लोकसभा सीट से दो सांसद हों।
इसका मतलब है कि 33.33 प्रतिशत से अधिक वोट पाने वाला कोई भी सांसद बन सकता है। इस तरह से अधिकतम दो सांसद चुने जा सकेंगे।
इस व्यवस्था के कई फायदे हैं। इस तरह से उम्मीदवार को किसी पर जुबानी हमला नहीं करना पड़ेगा न ही चुनाव पर बड़ी रकम खर्च करनी पड़ेगी। उसे सिर्फ एक तिहाई वोट से अधिक वोट हासिल करने पर फोकस करना होगा।
इस तरह से चुनाव अभियान के स्तर में भी सकारात्मक बदलाव होगा, जो वर्तमान दौर में बहुत निचले स्तर पर पहुंच गया है। निश्चित तौर पर चुनाव के लिए एक वैकल्पिक तंत्र की जरूरत है और इसके लिए इस मुद्दे पर व्यापक विमर्श होना चाहिए।
( प्रस्तुति- त्रिलोचन शास्त्री, चेयरमैन एडीआर और प्रोफेसर आईआईएम बेंगलुरु)
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