पृथ्वी दिवस: मिट्टी, पानी और पत्थर से बड़ा कोई उपकर नहीं
पद्मश्री डॉ. अनिल प्रकाश जोशी का कहना है कि पृथ्वी के बड़े उपकरों में अगर हवा, मिट्टी, पानी, पत्थर ही मान लिया जाए तो हिमालय का योगदान देश के लिए महत्वपूर्ण है।

देहरादून, [जेएनएन]: पद्मश्री डॉ. अनिल प्रकाश जोशी का कहना है कि पृथ्वी के बड़े उपकरों में अगर हवा, मिट्टी, पानी, पत्थर ही मान लिया जाए तो हिमालय का योगदान देश के लिए महत्वपूर्ण है। उत्तराखंड का एक बड़ा हिस्सा वनों से आच्छादित है, जिसकी एक बड़ी सेवा मिट्टी, पानी व हवा के रूप में रहती है। इसे करोड़ों रुपये की सेवा के रूप में आंका जा सकता है। यह राज्य पारिस्थितिकी के जन सरोकारों से चर्चित रहा है। चिपको आंदोलन की यह धरती पर्यावरण के रूप में एक संदेश देने के लिए आगे रही है, पर आज यह राज्य अपने पर्यावरण पर ज्यादा दम नहीं भर सकता।
जहां एक तरफ बांधों ने नदियों को तोड़-मरोड़ा है, वहीं दूसरी तरफ यहां केवनों ने उत्तम प्रजातियों को खोया है। शहरों में बढ़ती आबादी एवं उसकी आवश्यकताओं ने पारिस्थितिकी संतुलन को खतरे में डाल दिया है। अपना राज्य बनने के बाद भी जल, जंगल व जमीन के मुददों पर ज्यादा बहस नहीं होती। यही कारण है कि यह कभी मुख्य विषय नहीं बन सका। सही बात तो यह है कि पर्यावरण मात्र सरकारों का ही दायित्व नहीं होना चाहिए, बल्कि यह सामूहिक कर्तव्य का विषय है, क्योंकि हम सब पृथ्वी के उत्पादों को भोगते हैं।
वर्ष 1970 में जब जेराल्ड नेल्सन ने पृथ्वी दिवस मनाने की सोची थी तो शायद उनका ख्याल यही रहा होगा कि पृथ्वी के प्रति लोगों के दायित्व को कम से कम एक दिन के लिए याद दिलाया जाए। आज पृथ्वी के प्रति आत्मचिंतन का सामूहिक दिन है। वैसे इसके प्रति संजीदगी बनी हुई है। इसका प्रमाण यह है पृथ्वी दिवस। शुरुआती दौर में ये सरकारी ज्यादा था, पर अब सामाजिक भूमिका दिखाई देने लगी है। सबसे महत्वपूर्ण पहल जो हमारी भूमिका तय करती है कि इसे हम अपने हर पारिवारिक पर्वों में पर्यावरण को जोड़कर देख सकते हैं।
जन्म से मृत्यु तक हम जिन भी पर्वों को मनायें उनमें हम कुछ ऐसा करें जिसमें पृथ्वी के कष्टों को मुक्त करने की पहल हो। मसलन जन्मदिन, विवाह व अन्य पारिवारिक पर्व के दिन पौधा रोपण से लेकर नदी, गली गौचर तक विभिन्न वो कदम, जिनमें हम उत्कर्ष पर्यावरण पर कार्य कर सकते हैं। सरकार को विकास को मात्र आर्थिकी से ही जोड़कर नहीं देखना होगा। उसे पर्यावरण को भी विकास का मूल आधार बनाना होगा।
यह तय करना होगा कि हर वर्ष हम कितने वन, पानी, हवा को बेहतर कर पायें और इसमें भी वह ही स्थाईपन होना चाहिए, जैसा कि जीडीपी को लेकर किया जाता है। सकल पर्यावरण उत्पाद (जीईपी) जैसे मानक भी प्रगति का हिस्सा बनेंगे तो ही हम संतुलन बना पाएंगे। पृथ्वी आज विलासिता कि बोझ में दबी है। इसे बेहतर बनाने के लिए रास्ते सब की ही भागीदारी से तय होंगे, क्योंकि हम सब ही पृथ्वी को भोगते हैं। इसलिए ये सामूहिक दायित्व का विषय है ना कि व्यक्ति, सरकार या देश विशेष का।

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