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113 साल बाद खुलेगा इस 761 साल पुराने मंदिर का द्वार

ओडिशा की राजधानी भुवनेश्वर से डेढ़ घंटे की दूरी पर बंगाल की खाड़ी के तट पर खड़े कोणार्क का ये प्रसिद्ध सूर्य मंदिर 761 साल पुराना है।

By Babita KashyapEdited By: Published: Mon, 04 Jul 2016 02:38 PM (IST)Updated: Mon, 04 Jul 2016 03:10 PM (IST)
113 साल बाद खुलेगा इस 761 साल पुराने मंदिर का द्वार
113 साल बाद खुलेगा इस 761 साल पुराने मंदिर का द्वार

आज हम आपको एक ऐसे मंदिर के बारे में बताने जा रहे हैं, जो शीर्ष पुरातात्विक स्थलों में शुमार है। ओडिशा की राजधानी भुवनेश्वर से डेढ़ घंटे की दूरी पर बंगाल की खाड़ी के तट पर खड़े कोणार्क का ये प्रसिद्ध सूर्य मंदिर 761 साल पुराना है।

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कोणार्क शब्द, कोण और अर्क शब्दों के मेल से बना है। अर्क का अर्थ होता है सूर्य जबकि कोण से अभिप्राय कोण (एंगल) या किनारे से रहा होगा।

इस मंदिर की भव्यता को देखने के लिए 28 लाख से ज्यादा देशी-विदेशी पर्यटक हर साल यहां आते हैं। लेकिन इन पर्यटकों को भी शायद इस बात का अंदाजा नहीं कि वो जो देख रहे हैं वो इस भव्य सूर्यमंदिर के मुख्य मंडप का हिस्सा नहीं है। अगर हम मुख्य मंडप वाले हिस्से की बात करें तो वहां परिंदा भी पर नहीं मार सकता, तो दर्शन के लिए किसी के उधर जाने का तो सवाल ही नहीं उठता है।

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जैसा कि हम सब जानते हैं कि कोणार्क मंदिर को गंग वंश के राजा नृसिंहदेव ने 1255 ई. में बनवाया था। मुगल काल में कई हमलों और प्राकृतिक आपदाओं के चलते मंदिर की खराब हुई हालत को देख 1903 में तत्कालीन गवर्नर जॉन वुडबर्न ने जगमोहन मंडप के चारों दरवाजों पर दीवारें उठवा दीं और इसे पूरी तरह से रेत से भर दिया गया। इस काम में तीन साल लगे थे।

हालांकि 1994 में इटली के वास्तुशास्त्री और यूनेस्को के सलाहकार प्रोफेसर जॉर्जियो क्रोसी ने अपने एक अध्ययन में पाया कि उक्त मंडप को बंद किए जाते वक्त उसकी दशा शायद उतनी खतरनाक नहीं थी जितना अनुमान लगाया गया था। क्रोसी और बाद में और भी कई विशेषज्ञों ने कुछ मरम्मत और दूसरे सुझावों के साथ बालू हटाने और मंदिर खोलने की सिफारिश की ताकि लोग इस मंदिर के असली मंडप को देख सकें। अब विशेषज्ञों की इन सिफारिशों पर विचार किया जा रहा है। अगर ऐसा होता है तो 1903 में मुख्य मंडप को बंद किए जाने के 113 साल बाद एक बार फिर खुलेगा इस मंदिर का मुख्य द्वार।

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कलिंग स्थापत्य कला के प्रमाण इस कोणार्क मंदिर में लाल बलुए पत्थर पर सूर्यदेव के रथ की बेहतरीन नक्काशी देखने को मिलती है। इस मंदिर को सूर्य देव के बारह जोड़ी पहियों वाले रथ के रूप में बनाया गया है जिसे खींचने के लिए सात घोड़े भी बने थे। इनमें से अब एक ही घोड़ा बचा है। कोणार्क की पहचान बन चुके रथ के पहियों में बहुत से चित्र दिखाई देते हैं।

इस मंदिर में सूर्य देवता की तीन प्रतिमाएं हैं। पहली उगते सूर्य की 8 फुट की, दूसरी दोपहर के युवा सूर्य की 9.5 फुट की और तीसरी डूबते सूर्य की 3.5 फुट की। प्रवेश द्वार पर दो सिंह हाथियों पर हमले की मुद्रा में मौजूद हैं। दोनों हाथी एक-एक मनुष्य के ऊपर स्थापित हैं। ये सारी प्रतिमाएं एक ही पत्थर से बनी हैं और इसका वजन 28 टन है।

ये मंदिर सूर्य देव की भव्य यात्रा को दिखाता है। प्रवेश द्वार पर नट मंदिर है। यह वह स्थान है, जहां मंदिर की नर्तकियां, सूर्यदेव को अर्पण करने के लिए नृत्य किया करतीं थीं। साथ ही मानव, देव, गंधर्व, किन्नरों की आकृतियां ऐंद्रिक मुद्राओं में हैं और कामसूत्र से ली गई हैं।

ऐसा माना जाता है कि यहां आज भी नर्तकियों की आत्माएं आती हैं। अगर कोणार्क के पुराने लोगों की माने तो आज भी यहां आपको शाम में उन नर्तकियों के पायलों की झंकार सुनाई देगी जो कभी यहां राजा के दरबार में नृत्य करती थीं।

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18 वीं शताब्दी आते-आते इस मंदिर में पूजा बंद हो गई थी। अगर हम यहां के स्थानीय लोगों की मानें तो ये एक वर्जिन मंदिर है और ऐसा माना जाता है कि मंदिर के प्रमुख वास्तुकार के पुत्र ने राजा द्वारा उसके पिता के हत्या के बाद इस निर्माणाधीन मंदिर के अंदर ही आत्महत्या कर ली थी। जिसके बाद से ही इस मंदिर में पूजा या किसी भी धार्मिक अनुष्ठान पर पूर्णत: प्रतिबंध लगा दिया गया था।

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