जानिए तुर्की का इतिहास, कब-कब हुई सैन्य तख्तापलट की कोशिशें?
ऐसा पहली बार नहीं है जब तुर्की में सेना ने सत्ता पर कब्जा करने की कोशिश की हो। इससे पहले भी तुर्की तख्तापलट और सत्ता में अस्थिरता का गवाह रहा है। ...और पढ़ें

नई दिल्ली। तुर्की में सैन्य तख्तापलट की कोशिश हुई है। सेना का दावा है कि उसने तख्तापलट कर दिया है वहीं सरकार का कहना है कि सैन्य तख्तापलट की कोशिश को नाकाम कर दिया गया है। राष्ट्रपति एर्दोगान ने लोगों से सरकार के समर्थन में सड़कों पर निकलने की अपील की है। इस बीच पूरे देश में आपातकाल की घोषणा कर दी गई है। पुलिस और प्रदर्शनकारियों के बीच जारी हिंसा में अबतक 17 पुलिसकर्मी समेत 60 लोगों की मौत हो चुकी है।
सेना पहले भी कर चुकी है सत्ता पर कब्जा करने की कोशिश
ऐसा पहली बार नहीं है जब तुर्की में सेना ने सत्ता पर कब्जा करने की कोशिश की हो। इससे पहले भी तुर्की तख्तापलट और सत्ता में अस्थिरता का गवाह रहा है। सेना अक्सर ये तर्क देती है कि वह देश में सेक्युलेरिटी बचाने के लिए यह कर रही है ताकि तुर्की गणराज्य के संस्थापक और सेना के पूर्व अधिकारी मुस्तफा कमाल अतातुर्क की इस्छाओं का सम्मान हो सके।
तुर्की में सरकार और सेना के बीच मतभेद साल 2002 के दौरान उस वक्त भी देखने को मिले थे जब एर्देोगान देश के प्रधानमंत्री बने थे। उस वक्त भी कई सैन्य अधिकारियों को गिरफ्तार किया गया था।
आइए आपको सिलसिलेवार तरीके से बताते हैं कि कब-कब तुर्की में तख्तापलट की कोशिशें की गई?
एक समय में ऑटोमन साम्राज्य का केंद्र रहे तुर्की में 1920 के दशक में राष्ट्रवादी नेता मुस्तफा कमाल अतातुर्क के नेतृत्व में धर्मनिर्पेक्ष गणतंत्र की स्थापना की गई। 1923 में तुर्की को गणतंत्र को घोषित किया गया है और मुस्तफा कमाल अतातुर्क को राष्ट्रपति बनाया गया।
साल 1938 में अतातुर्क की मौत के बाद लोकतंत्र और बाजार आधारित अर्थव्यवस्था कमजोर पड़ने लगी और सेना ने कई बार धर्मनिर्पेक्षता के लिए खतरा बताकर कई सरकारों को सत्ता से बेदखल किया।
साल 1952 में तुर्की ने अतातुर्क की तटस्थता की नीति को छोड़कर गठबंधन सेना के साथ समझौता कर लिया।
27 मई 1960
डेमोक्रेटिक पार्टी की सरकार का सेना ने तख्तापलट कर दिया। यह तख्तापलट तब हुआ था जब सत्ताधारी दल ने अतातुर्क द्वारा बनाए गए सख्त कानूनों से इतर धार्मिक गतिविधियों को खुली इजाजत दी जिसमें, सैकड़ों की तादाद में मस्जिदों को खोला गया और अरबी में प्रार्थना को इजाजत दी गई।
जब सेना ने सत्ता की बागडोर संभाली तब इसके प्रमुख कमाल गुर्शेल ने कहा कि इसका मकसद देश में लोकतंत्र और उसके मूल्यों को मजबूती से स्थापित करना है। साथ ही सेना का मकसद लोकतांत्रिक तरीके से चुनी गई सरकार को सत्ता सौंपना है। गुर्शेल ने 1966 तक राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री की शक्तियों का प्रयोग किया।
12 मार्च 1971
तुर्की की राजनीति में जारी अस्थिरता के बीच सेना ने फिर एक बार सत्ता की बागडोर संभाली लेकिन इस बार सीधे तौर पर नहीं। सेना ने धानमंत्री को सीधे निर्देश देना आरंभ कर दिया। इसे मैमोरेंडम ऑप कू करार दिया गया। प्रधानमंत्री सुलेमान दिमेरल को सेना ने अल्टीमेटम दे दिया था। सेना ने कहा था कि लोकतांत्रिक मूल्यों के तहत मजबूत और विश्वसनीय सरकार काम करे ताकि वर्तमान अराजकता की स्थिति से बाहर आया जा सके।
इस मैमोरेंडम के बार दिमेरल को इस्तीफा देना पड़ा है। इस बार सेना ने सत्ता सीधे हाथ में नहीं ली थी और 1973 तक बदलती सरकारों के कामकाज पर नजर बनाए रखी।
12 सितंबर 1980
सामाजिक और राजनीतिक अराजकता के माहौल के बीच सेना ने फिर एक बार सत्ता की कमान अपने हाथों में ली। 1979 के अंत तक कुछ वरिष्ठ अधिकारियों ने सैन्य तख्तापलट का निर्णय लिया। यह निर्णय मार्च में लागू होना था लेकिन, कुछ समय के लिए टाल दिया गया। बाद में 12 सितंबर को इस संबंध में सेना ने राष्ट्रीय चैनल में एक घोषणा कर देश में मार्शल लॉ लगा दिया।
इस समय सेना ने संविधान को समाप्त कर दिया और नया लागू किया जिसे 1982 में रेफरेंडम के लिए लोगों के बीच भी भेजा और इस संविधान को 92 प्रतिशत लोगों को समर्थन भी मिला। नए संविधान के लागू होने के बाद चुनाव हुआ और सैन्य तख्तापलट करने वाले जनरल केनन एवरेन सत्ता में बरकरार रहे। अगले सात सालों तक केनन पद पर रहे।
27 फरवरी 1997
एक बार फिर तुर्की में सेना ने ये तर्क देते हुए तख्तापलट कर दिया कि देश में राजनीतिक स्तर पर इस्लाम के ज्यादा प्रयोग होने लगा है। सेना के जनरल इस्माइल हक्कल करादेल ने सरकार के प्रमुख नेकमेट्टिन एर्बाकन को कुछ निर्देश दिए। इसमें कई धार्मिक स्कूलों को बंद करने, यूनिवर्सिटी में सिर पर टोपी पहनने पर रोक लगाने के लिए कहा। इसके बाद सेना के दबाव में प्रधानमंत्री को इस्तीफा देना पड़ा। एक अंतरिम सरकार बनाई और सेना ने 1998 में वेल्फेयर पार्टी को सत्ता से बाहर कर दिया।
इसी साल एर्दोगान जो उस समय इस्तांबुल के मेयर थे, को जेल में भेज दिया गया था, साथ ही पांच सालों के लिए उनके राजनीति करने पर भी रोक लगा दी गई थी। यह सजा उन्हें पब्लिक के बीच में एक इस्लामिक कविता पढ़ने के लिए दी गई थी। 1999 में फिर चुनाव हुए। 2014 में एर्दोगान देश के राष्ट्रपति चुने गए थे।

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