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अमेठी में अच्छा-बुरा सब प्रियंका का

अमेठी (प्रशांत मिश्र)। पंद्रह-बीस दिन पहले अमेठी और आसपास के इलाके में घूमते हुए समय के ठहरे होने के अहसास हुआ था। आज जब मैं फिर अमेठी में घूम रहा हूं तो कुछ नया होने की हलचल मिल रही है। जमीन पर बहुत बड़े बदलाव की लहर हो ऐसा तो नहीं, लेकिन सोच के स्तर पर नई चाहत जरूर जगने लगी है। दरअसल, अमेठी के वीआइपी इलाके में चुनाव जीतने

By Edited By: Published: Thu, 01 May 2014 09:34 PM (IST)Updated: Thu, 01 May 2014 11:37 PM (IST)

अमेठी (प्रशांत मिश्र)। पंद्रह-बीस दिन पहले अमेठी और आसपास के इलाके में घूमते हुए समय के ठहरे होने के अहसास हुआ था। आज जब मैं फिर अमेठी में घूम रहा हूं तो कुछ नया होने की हलचल मिल रही है। जमीन पर बहुत बड़े बदलाव की लहर हो ऐसा तो नहीं, लेकिन सोच के स्तर पर नई चाहत जरूर जगने लगी है। दरअसल, अमेठी के वीआइपी इलाके में चुनाव जीतने के लिए गांधी परिवार का बड़ा नाम और संसदीय क्षेत्र के लिए थोड़ा काम ही काफी है।

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1981 में राजीव गांधी के पहले चुनाव के बाद से यहां के मतदाताओं का मिजाज ऐसा ही रहा है। प्रियंका गांधी ने स्थिति में थोड़ी आक्रामकता भी पैदा कर दी है। हालांकि, इसके साथ ही राहुल की अमेठी में पेचीदगी बढ़ने की आशंका भी गहरा गई है।

फुरसतगंज के एक प्राइमरी शिक्षक राम किशोर सवाल का बहुत सटीक जवाब देते हुए कहते हैं- 12 तारीख को राहुल गांधी के नामांकन से पहले प्रियंका ने वरुण गांधी के रास्ता भटकने वाला बयान दिया था। उससे माहौल थोड़ा बदला था। लेकिन बाद में उन्होंने पारिवारिक मामले को ठुकरा कर पूरे विषय को वैचारिक बना दिया।'

ध्यान रहे कि परोक्ष रूप से उन्होंने वरुण को सबक सिखाने की अपील की थी। यह आक्रामकता कुछ को भाई होगी तो ऐसे भी हैं जो इसे अनावश्यक समझते हैं। अमेठी के आम लोगों का मानना है कि यहां चुनाव जीतने के लिए राजीव भैया, राहुल भैया और सोनिया गांधी के नाम से भावनात्मक जुड़ाव की काफी है। एक स्कूल संचालक मजाक में कहते हैं- प्रियंका के आक्रामक अभियान के जरिये अमेठी के चुनाव का राष्ट्रीयकरण कर दिया गया है।' उनके हिसाब से इस चुनाव में कांग्रेस के लिए जो अच्छा है और जो बुरा है उन दोनों के लिए प्रियंका और सिर्फ प्रियंका को जिम्मेदार मानना चाहिए।

अमेठी के मतदाताओं का मन टटोलने पर यह दिखता है कि अखबारी स्तर पर ही नहीं असलियत में भी यहां प्रियंका फैक्टर बहुत हावी हो गया है। लोग कहते हैं प्रियंका ने वोटरों से वैसा रिश्ता बनाया है जैसा कभी राजीव गांधी ने बनाया था। जबकि राहुल तीन चुनाव के बाद भी यहां वह रिश्ता कायम नहीं कर सके। फुरसतगंज के मुस्ताक का कहना है, 'राजीव का संवाद रियल लगता था, जबकि राहुल का रियलिटी शो लगता है।

राजीव का संपर्क मानवीय था तो राहुल का मशीनी।' प्रियंका ने अपने आकर्षण और आत्मीय अंदाज से राहुल की इस कमी को पूरा कर दिया है। लेकिन एक नई समस्या पैदा हो गई है। उन्होंने बचाव की जगह हमले का तरीका अपनाया, भावनाओं का सहारा लिया और राष्ट्रीय मुद्दों को उठाना शुरू कर दिया। इससे प्रियंका का कद जरूर बढ़ा लेकिन अमेठी के मामले में पेचीदगी भी बढ़ गई। अमेठी का चुनाव प्रदेश की बाकी सभी सीटों जैसा हो गया है जिससे कांग्रेस को नुकसान हो रहा है।

प्रियंका ने यहां भाजपा के पीएम प्रत्याशी नरेंद्र मोदी पर आरोप लगाया था। उसके बाद कम से कम प्रचार के स्तर पर यहां भाजपा को बढ़त मिल गई है। इसका असर इतना हुआ है कि 'द' से देश और 'द' से दामाद जैसे नारे अमेठी में उछलने लगे हैं। जीजा और जमाई बाबू पर ठिठोली भी होने लगी है। रायबरेली और अमेठी के बीच यह फर्क बहुत साफ दिखता है। रायबरेली में खराब सड़क, बिजली की आंख मिचौली और दूसरी समस्याओं के लिए लोग सूबे की सरकार को जिम्मेदार मानते हैं। लेकिन अमेठी में इसके लिए भी राहुल को जिम्मेदार माना जा रहा है।

रायबरेली में लोग कांग्रेस की इस कमी के लिए किशोरी लाल शर्मा का नाम लेते हैं लेकिन अमेठी में लोग चंद्रकांत दूबे का नहीं बल्कि सीधे राहुल का नाम लेते हैं। रायबरेली में उद्योग बंद हुए हैं तो नए भी लगे हैं जबकि अमेठी में बंद पड़े पुराने उद्योगों की उस तरह भरपाई नहीं हुई है? एमपीलैड स्कीम के उपयोग पर भी सवाल उठ रहे हैं।

पिछले चुनाव में ही ऐतिहासिक रूप से कम हुए मतदान पर राहुल के खेमे को सतर्क होना चाहिए था। इन पांच सालों में दूरी कम हुई या बढ़ी इसपर भी अलग-अलग सुर हैं। मुमकिन है कि जनता से उनकी दूरी का बहुत लाभ भाजपा या आम आदमी पार्टी को इस चुनाव में न मिले। कुमार विश्वास को यहां मनोरंजन की सामग्री माना जा रहा है, लिहाजा जाएंट किलर बनने का उनका सपना दिवास्वप्न ही साबित होगा।

स्मृति ईरानी को उम्मीदवारी की घोषणा में देरी की वजह से नुकसान हुआ है। कुल मिलाकर ऐसा नहीं लगता है कि अमेठी के चुनावी घमासान का कोई नया नतीजा निकलेगा लेकिन राहुल और दूसरे उम्मीदवारों के बीच वोटों के फासले में कमी का राजनीतिक निहितार्थ अहम होगा। इस बार अगर जीत का मार्जिन थोड़ा भी कम हुआ तो राहुल के राष्ट्रीय व्यक्तित्व पर खरोंच लगेगी।

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