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अर्श से फर्श पर आए लालू यादव

पटना [अरुण अशेष]। बचपन में गाय-भैंस चराने का दावा करने वाले लालू यादव फिर अर्श से फर्श पर आ गए हैं। जेपी आंदोलन में शामिल होने के बाद राजनीति की सीढि़यां चढ़ने वाले लालू पहले पहल 1

By Edited By: Published: Tue, 01 Oct 2013 03:45 AM (IST)Updated: Tue, 01 Oct 2013 03:46 AM (IST)
अर्श से फर्श पर आए लालू यादव

पटना [अरुण अशेष]। बचपन में गाय-भैंस चराने का दावा करने वाले लालू यादव फिर अर्श से फर्श पर आ गए हैं। जेपी आंदोलन में शामिल होने के बाद राजनीति की सीढि़यां चढ़ने वाले लालू पहले पहल 1990 में सत्ता के केंद्र में आए थे, लेकिन मुख्यमंत्री का पद उन्हें आसानी से नहीं मिला। जब जनता दल विधायक दल में चुनाव की नौबत आई तो वे नेता घोषित हुए, लेकिन शपथ ग्रहण करने में उन्हें तीन दिन लग गए। तब कांग्रेस छोड़कर विधानसभा में मौजूद सभी दलों ने उनकी सरकार का समर्थन किया। सरकार चल पड़ी पर जल्द ही उनके सामने चुनौतियां आने लगी।

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लालकृष्ण आडवाणी की गिरफ्तारी के बाद भाजपा ने सरकार से समर्थन वापस लिया। उस समय भाजपा के 39 विधायक थे। लालू ने भाजपा के 13 विधायक तोड़े और उनकी सरकार बच गई। फिर भी सरकार चलाना आसान नहीं था। झामुमो और लालू के बीच अघोषित समझौता था। 1991 के लोकसभा चुनाव में लालू और उनके सहयोगियों को एकीकृत बिहार में लोकसभा की 54 में से 48 सीटें मिल गई थीं। लालू बेताज बादशाह बनकर उभरे। इसके बावजूद मुख्यमंत्री के तौर पर उनका कार्यकाल चैन से नहीं गुजरा।

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राज्य में नरसंहारों का दौर चल रहा था, लेकिन केंद्र में सरकार चला रही कांग्रेस के अध्यक्ष सीताराम केसरी उनके साथ खड़े थे। इधर जनता दल में असंतोष पैदा हो रहा था। जल्द ही जार्ज फर्नाडीस की अगुआई में जनता दल में विभाजन हो गया और इसी के साथ विधानसभा का नया चुनाव सिर पर आ गए। टीएन शेषन मुख्य चुनाव आयुक्त की हैसियत से बिहार पर खास नजर रख रहे थे। फरवरी, 1995 में शुरू हुई चुनावी प्रक्रिया अप्रैल में पूरी हुई। लालू की विदाई की कथा लिखी जा रही थी। चुनाव में देरी के कारण राज्य में 28 मार्च, 1995 को राष्ट्रपति शासन लागू हो गया। चुनाव परिणाम आया तो लालू की पार्टी को 324 सदस्यीय बिहार विधानसभा में 165 सीटें मिली। लालू प्रसाद दूसरी बार मुख्यमंत्री बने। इस परिणाम ने लालू को आसमान पर बिठा दिया। उन्होंने विदेश यात्राएं की। वहां से लौटे तो विकास के बारे में बोलने लगे, लेकिन उसी समय चारा घोटाले की चर्चा शुरू हो गई। इधर, घोटाला फूटकर बाहर आया उधर लालू केंद्र की देवगौड़ा सरकार के किंग मेकर बन गए। उन्हें उम्मीद थी कि देवगौड़ा उनकी मदद करेंगे। किसी कारणवश देवगौड़ा ऐसा नहीं कर पाए। देवगौड़ा की जगह गुजराल पीएम बने, लेकिन सीबीआइ के कड़े रुख के आगे वह भी कुछ नहीं कर सके।

यूएन विश्वास चारा घोटाले के मुख्य जांचकर्ता थे। केंद्र ने उन्हें जांच से अलग करने की कोशिश की। हाई कोर्ट की दखल से विश्वास को हटाया नहीं जा सका। अभियोजन की स्वीकृति के बिना सीबीआइ लालू पर मुकदमा नहीं चला पा रही थी। राज्यपाल एआर किदवई के पास अभियोजन की स्वीकृति की फाइल महीनों पड़ी रही। 17 जून, 1997 को किदवई ने मुख्यमंत्री लालू के खिलाफ अभियोजन की स्वीकृति दी। इसके साथ ही जनता दल में उन्हें हटाने के लिए अभियान चलाया जाने लगा।

पांच जुलाई, 1997 को लालू ने जनता दल से अलग होकर राष्ट्रीय जनता दल के नाम से नई पार्टी बना ली। गिरफ्तारी तय हो जाने के बाद लालू ने मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया और राबड़ी देवी को मुख्यमंत्री बनाने का फैसला किया। राबड़ी के विश्वास मत हासिल करने की बारी आई तो कांग्रेस और झामुमो ने साथ दिया।

1998 में केंद्र में अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में सरकार बन गई थी। दो साल बाद विधानसभा का चुनाव हुआ तो राजद अल्पमत में आ गया। सात दिनों के लिए नीतीश कुमार की सरकार बनी। वह चल नहीं पाई। राबड़ी देवी फिर मुख्यमंत्री बनीं। कांग्रेस के 22 विधायक सरकार में मंत्री बने। 2004 के लोकसभा चुनाव में लालू प्रसाद एक बार फिर किंग मेकर की भूमिका में आए और वह रेलमंत्री बने, लेकिन 2005 में बिहार से राजद सरकार की विदाई हो गई और 2009 के लोकसभा चुनाव में राजद के केवल चार सांसद जीते। लालू को केंद्र सरकार में जगह नहीं मिली। समय-समय पर लालू को बचाने वाली कांग्रेस ने इस बार उन्हें नहीं बचा सकी। दागी जन प्रतिनिधियों को बचाने वाला अध्यादेश राहुल गांधी के विरोध के कारण अधर में लटक गया और इस तरह लालू का राजनीतिक भविष्य डांवाडोल हो गया।

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