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नहीं थम रहा आंसुओं का सैलाब

पानी का सैलाब भले ही तबाही मचाकर गुजर गया हो लेकिन आंसुओं का सैलाब थमने का नाम नहीं ले रहा। देहरादून, हरिद्वार, ऋषिकेश व अन्य कई स्थानों पर हाथ में फोटो लिए हजारों लोग अपनों की तलाश में भटक रहे हैं तो तमाम घरों में खुशखबरी की आस अभी बची है।

By Edited By: Published: Sun, 30 Jun 2013 06:10 AM (IST)Updated: Sun, 30 Jun 2013 06:12 AM (IST)

देहरादून [जागरण न्यूज नेटवर्क]। पानी का सैलाब भले ही तबाही मचाकर गुजर गया हो, लेकिन आंसुओं का सैलाब थमने का नाम नहीं ले रहा। देहरादून, हरिद्वार, ऋषिकेश व अन्य कई स्थानों पर हाथ में फोटो लिए हजारों लोग अपनों की तलाश में भटक रहे हैं तो तमाम घरों में खुशखबरी की आस अभी बची है।

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उत्तराखंड सरकार 822 लोगों की मौत के आंकड़े और तीन हजार के लापता होने की संख्या पर टिकी है, जबकि प्रदेश विधानसभा अध्यक्ष गोविंद सिंह कुंजवाल ने मरने वालों का आंकड़ा दस हजार से ऊपर जाने की आशंका जतायी है। उन्होंने कहा, हाल के गढ़वाल दौरे के समय उन्हें मरने वालों की संख्या पांच हजार तक होने का एहसास हो गया था, लेकिन अब प्राप्त सूचनाओं से लग रहा है कि यह आंकड़ा दस हजार से ऊपर जा सकता है।

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खराब मौसम के बावजूद आपदाग्रस्त इलाके में बचाव का कार्य जारी रहा। शनिवार को बदरीनाथ व कुछ अन्य इलाकों से कुल 1313 लोग निकाले गए। डेढ़ हजार लोग अभी भी फंसे हुए हैं।

आपदाग्रस्त क्षेत्रों से काफी हद तक तीर्थयात्रियों को निकालने के बाद सरकारी तंत्र का ध्यान स्थानीय आबादी की ओर गया है लेकिन बिगड़ा मौसम कुछ खास नहीं करने दे रहा। रुद्रप्रयाग, चमोली, उत्तरकाशी, पिथौरागढ़ और पौड़ी गढ़वाल जिलों के बर्बाद हुए 672 गांवों में मौसम खराब होने के कारण हेलीकॉप्टर से राहत सामग्री नहीं गिराई जा पा रही। रुद्रप्रयाग के उखीमठ ब्लॉक के करीब सौ गांवों में भुखमरी का खतरा मंडरा रहा है।

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इन बर्बाद गांवों तक पहुंचने का सड़क मार्ग खत्म हो गया है। कई गांव अपना अस्तित्व खो चुके हैं और तमाम किसानों के पहाड़ों की तलहटी में स्थित खेत जल सैलाब में बह गए हैं या उनमें मलबा भर गया है। रुद्रप्रयाग का विजयनगर कभी एक बड़ा गांव हुआ करता था लेकिन अब उससे होकर नदी बह रही है। परिजन- घर-खेत-मवेशी गंवाने के बावजूद ग्रामीण अपना ठिकाना छोड़ने को तैयार नहीं। वह वहीं पर रहकर अपनी जिंदगी को फिर से गति देना चाह रहे हैं। सरकार पर अब ऐसे ग्रामीणों की जिंदगी को पटरी पर लाने की चुनौती है।

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लापता लोगों की संख्या और प्रत्यक्षदर्शियों की मृतक संख्या की आशंका दिल दहलाने वाली है। आपदा के 13 दिन बाद भी जो लोग नहीं लौटे हैं और उनकी कोई सूचना नहीं है, उनके परिजन भी अब भारी मन से उन्हें हादसे का शिकार मानने को विवश हैं।

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राहत शिविरों और सरकारी दफ्तरों के चक्कर काटकर थक चुके लोग अब अपने लापता परिजनों के नियति का शिकार होने की बात स्वीकार करने लगे हैं। वे अब केदारनाथ में अंतिम संस्कार से पहले लाशों के खींचे जा रहे फोटो और पहचान स्पष्ट करने वाली वस्तुओं को देखने के इच्छुक हैं, जिससे उन्हें अपने परिजनों की सही स्थिति का पता तो लग सके।

महामारी का खतरा बरकरार :

आपदा के केंद्र रहे केदार घाटी इलाके में अभी भी हजारों शव जहां-तहां पड़े हैं। तमाम शवों के मलबे में दबे होने की आशंका है। इलाके का वातावरण शवों से उठ रही दुर्गध से बुरी तरह दूषित हो चुका है। चूंकि सभी फंसे लोगों को यहां से निकाला जा चुका है और आबादी वहां बची नहीं है, इसलिए महामारी की जद में आसपास बचे गांवों के लोग ही आ सकते हैं। शनिवार को केवल तीन अज्ञात लाशों का अंतिम संस्कार हो सका।

आधारभूत ढांचे को भारी नुकसान :

मानवीय क्षति के अतिरिक्त सरकार आधारभूत ढांचे को हुए नुकसान को फिर से खड़ा करने की चुनौती से भी जूझ रही है। आपदा से 259 सड़कों के बुरी तरह क्षतिग्रस्त होने और डेढ़ सौ से ज्यादा पुल-पुलिया बह जाने की जानकारी सामने आई है। बह गए ग्रामीण इलाकों के पैदल रास्तों की संख्या इसके अतिरिक्त है जिनसे होकर पहाड़ों के बीच स्थित गांवों के लोग जाते-आते थे। जानकार मान रहे हैं कि तमाम सहायता के बावजूद उत्तराखंड को अपनी पूर्व स्थिति में आने में कई साल लग सकते हैं।

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