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इस बच्चे ने तेरह की उम्र में कर दिखाया ऐसा कारनामा

बस्ती, महेंद्र कुमार त्रिपाठी। हिंदी साहित्य के प्रखर आलोचक आचार्य रामचंद्र शुक्ल के साहित्य साधकों की कमी नहीं है। बस्ती शहर का निवासी नौवीं कक्षा का तेरह वर्षीय छात्र अब उपन्यासकार की कतार में आ गया है। उसके द्वारा लिखा गया उपन्यास आरकेडिया पंजाब और दिल्ली के प्रकाशकों को भा गया है।

By Edited By: Published: Mon, 21 Jul 2014 02:03 PM (IST)Updated: Mon, 21 Jul 2014 02:43 PM (IST)
इस बच्चे ने तेरह की उम्र में कर दिखाया ऐसा कारनामा

बस्ती, महेंद्र कुमार त्रिपाठी। हिंदी साहित्य के प्रखर आलोचक आचार्य रामचंद्र शुक्ल के साहित्य साधकों की कमी नहीं है। बस्ती शहर का निवासी नौवीं कक्षा का तेरह वर्षीय छात्र अब उपन्यासकार की कतार में आ गया है। उसके द्वारा लिखा गया उपन्यास आरकेडिया पंजाब और दिल्ली के प्रकाशकों को भा गया है।

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बस्ती शहर के पुरानी बस्ती मोहल्ले के कला अग्रवाल के पुत्र रोहन अग्रवाल ने अंग्रेजी भाषा में आरकेडिया उपन्यास लिखकर बाल साहित्यकारों की दुनिया में नया इतिहास रचा है। उपन्यास प्रकाशित हो गया है। अब रोहन को उपन्यास की रायल्टी भी मिलेगी। पुस्तक की डिमांड अंग्रेजी भाषी स्कूलों और कालेजों में होने लगी है। रोहन की किताब को इंटरनेशनल स्टैंडर्ड बुक नंबर भी मिल गया है।

उपन्यास का कथानक

जादुई दुनिया पर आधारित उपन्यास आरकेडिया का कथानक रोजर वाइट नामक अनाथ बचे के इर्दगिर्द घूमता है। रोजर दोस्तों के साथ फुटबाल खेलता है। अचानक उसे पिछले जन्म की बीवी की जिंदगी के बारे में बुरे सपने आने लगते हैं। रोजर को पता चलता है कि उसके माता-पिता का खून बुरे जादूगर ड्रोंजर नाइट ने किया था, मगर क्यों, वह नहीं जानता। अब वह असली दुनिया में खुद को दुश्मनों से घिरा हुआ पाता है।

ए से मिली लिखने की प्रेरणा

रोहन बताते हैं कि वह लखनऊ स्थित एक कालेज लाइब्रेरी में जब पढ़ने जाते थे तो वहां उसके साथी अंग्रेजी उपन्यास पढ़ते थे। उनको देखकर रोहन के मन में भी उपन्यास पढ़ने की जिज्ञासा हुई। जब एक उपन्यास पढ़ा तो मन में आया कि क्यों न मैं भी इस प्रकार का उपन्यास लिखूं। फिर हास्टल में आने पर खाली समय में एक पेज पर कहानी लिखी। उसी कहानी को लगातार पांच माह तक कागज पर ही विस्तार देता रहा।

बाद में उसे अपने शिक्षक और घर में माता-पिता को दिखाया। सभी को कहानी पसंद आई। इसके बाद दिल्ली व पंजाब के प्रकाशकों से संपर्क किया गया, जिन्होंने उपन्यास की पांडुलिपि मंगाई। दो माह के बाद उपन्यास को प्रकाशित करने की स्वीकृति प्रकाशक की तरफ से मिली तो खुशी का ठिकाना न रहा। इसका श्रेय अपनी बहन व माता-पिता के साथ दादी को देते हुए रोहन बताते हैं कि सभी ने इस काम में उनका हौसला बढ़ाया।

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