न्याय न बने अन्याय
संस्था न्यायपालिका। दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र का सबसे मजबूत अंग। जब-जब जनहित से जुड़े मुद्दों पर लोकतंत्र के अन्य अंगों कार्यपालिका या विधायिका द्वारा कुठाराघात किया गया तो न्यायपालिका ने ही एक कदम आगे बढ़कर उन मसलों को न केवल अंजाम तक पहुंचाया बल्कि अपने और लोकतंत्र के प्रति जनमानस के भरोसे को और मजबूत भी किया। अपने इसी जज्
संस्था
न्यायपालिका। दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र का सबसे मजबूत अंग। जब-जब जनहित से जुड़े मुद्दों पर लोकतंत्र के अन्य अंगों कार्यपालिका या विधायिका द्वारा कुठाराघात किया गया तो न्यायपालिका ने ही एक कदम आगे बढ़कर उन मसलों को न केवल अंजाम तक पहुंचाया बल्कि अपने और लोकतंत्र के प्रति जनमानस के भरोसे को और मजबूत भी किया। अपने इसी जज्बे और छवि के चलते लोकतंत्र के अन्य स्तंभों की तुलना में भारतीय न्यायपालिका पर सभी नागरिकों की श्रद्धा और विश्वास औरों से कहीं ज्यादा है।
सुधार
माना जाता है कि किसी लोकतांत्रिक देश और समाज का चहुंमुखी विकास तभी संभव हो पाता है जब सभी क्षेत्र समानुपातिक रूप से सुधरें। आज से करीब चौथाई सदी पहले हम आर्थिक सुधारों का सूत्रपात कर चुके हैं। राजनीतिक सुधारों पर बहस बीच-बीच में न केवल चलती रही है बल्कि कई अहम कदम भी उठाए जा चुके हैं। आजादी के बाद न्यायिक सुधारों की रफ्तार सुस्त रही है। तमाम समितियों, लॉ कमीशन जैसी संस्थाओं की रिपोर्टे इस बाबत आई और अपनी सिफारिशों का पुलिंदा छोड़कर चली गई। न्यायिक क्षेत्र में सुधार की अगुआई को कोई भी सामने नहीं आया। बड़े दिनों बाद न्यायपालिका के बियावान में सुधार की रोशनी दिखी है। शीर्ष न्यायिक पदों की नियुक्तियों में विसंगतियों को दूर करने के लिए कोलेजियम प्रणाली को खत्म करके न्यायिक नियुक्ति आयोग का गठन किया जा रहा है। न्यायिक क्षेत्र में इस सुधार को मील का पत्थर और क्रांतिकारी कदम सरीखा माना जा रहा है। इसके अलावा अनुपयोगी और अप्रासंगिक कानूनों को खत्म करने की पहल भी इस क्षेत्र में सुधार की एक बानगी की तरह देखी जा रही है।
समाधान
आम जन को सस्ता, सुलभ और त्वरित न्याय न्यायपालिका की जिम्मेदारी है। जनता के अधिकारों की रक्षा करना उसकी जवाबदेही है। विलंबित न्याय, न्याय न मिलने जैसा होता है। सुधारों की सुस्त रफ्तार या यूं कहें कि सुधारों के अभाव में आजादी के छह दशक बाद भी कुछेक लोगों का पूरा जीवन मुकदमेबाजी में बीत जाता है। फिर भी न्याय मयस्सर होने की गारंटी नहीं होती। ऐसे में जन साधारण को न्याय दिलाने की दिशा में तमाम लंबित न्यायिक सुधारों का त्वरित गति से लागू किया जाना हम सबके लिए बड़ा मुद्दा है।
अदालतों में जजों की कमी
स्वीकृत क्षमता -- मौजूदा क्षमता -- रिक्तियांसुप्रीम कोर्ट -- 31 -- 29 -- 02
हाई कोर्ट -- 906 -- 640 -- 266
जिला और अधीनस्थ अदालतें -- 19238 -- 14942 -- 4296
मुकदमों का बोझ कोर्ट -- लंबित मामले
सुप्रीम कोर्ट -- 66,349
हाई कोर्ट (सभी 21) -- 45,89,920
[दिसंबर 2013 तक]
जनमत
क्या कोलेजियम के बदले नई व्यवस्था न्यायिक नियुक्ति आयोग न्यायिक सुधार की दिशा में एक बेहतर कदम है?
हां 81 फीसद
नहीं 19 फीसद
क्या देश में न्यायिक सुधार की रफ्तार लोगों को सस्ता, सुलभ न्याय दिलाने के अनुरूप रही है?
हां 40 फीसद
नहीं 60 फीसद
आपकी आवाज
यह कदम कुछ हद तक सही है और कुछ हद तक गलत। आयोग उनकी कार्यशैली, योग्यता आदि जांच सकता है लेकिन नियुक्ति मामला अगर न्यायाधीश को ही सौंप दें तो श्रेष्ठ होगा। - अनिल कुमार सिंह
कोलेजियम व्यवस्था पहले के लिए थी जिसमें भ्रष्टाचार का कीड़ा लग चुका है। इसलिए नई व्यवस्था लाने की जरूरत है। यह निश्चित रूप से प्रभावी होगी। -शुभम गुप्ता100@जीमेल.कॉम
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