...जब शिक्षक द्वारा मारे गए बूट से भी विचलित नहीं हुए गांधी जी
आखिर वह कौन से पड़ाव हैं। कौन सी घटनाएं हैं, जिसने मोहनदास करम चंद गांधी को महात्मा गांधी बना दिया। वह देश ही नहीं पूरी दुनिया के नायक हो गए और जगत उन्हें संत मानने पर विवश हुआ।
नई दिल्ली [ जेएनएन ]। आखिर महात्मा गांधी को सच बोलने की प्रेरणा कहां से मिली। क्या आप जानते हैं ? यदि आप गांधी जी की आत्मकथा पढ़ेंं तो उनके कुछ पत्रों से शायद उन बिंदुओं को समझ पाएंगे, जिसने मोहन दास करम चंद्र को महात्मा गांधी में तब्दील कर दिया। आइए जानते हैं गांधी जी के साथ घटित उन सच्ची घटनाओं को जिसने गांधी जी के जीवन को बदल दिया। या फिर कहें गांधी जी के सिद्धांंतों को और मजबूत किया।
1- स्कूल में पढ़ा ईमानदारी का पाठ
छात्र जीवन की एक घटना गांधी जी को झकझोर गई। इस घटना ने उन्हें ईमानदारी का पाठ पढ़ाया। दरअसल, गांधी जी नौंवी कक्षा के छात्र थे। स्कूल में बोर्ड की परीक्षा चल रही थी। शिक्षा विभाग के एक इंस्पेक्टर स्कूल की पड़ताल पर निकले थे। अचानक वह गांधी जी के स्कूल पहुंच गए। उन्होंने गांधी जी की कक्षा का मुअायना किया और कक्षा के छात्रों को पांच शब्द लिखने को कहा।
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उनमें एक शब्द 'केटल' था। गांधी जी ने लिखा है कि मैंने उसके हिज्जे को गलत लिखा। शिक्षक ने बूट की नोक से मुझे गलती को सुधारने का इशारा किया लेकिन मैं उस संकेत को नहीं समझ सका।
उन्होंने लिखा है कि मेरा दिमाग उस संकेत की ओर नहीं गया। क्योंकि मेरे मन में यह भाव था कि नकल नहीं करनी है। दूसरे यह भी विचार आया कि शिक्षक भी इस बात की निगरानी कर रहे होंगे कि कोई बच्चा नकल नहीं करे। फिलहाल कक्षा में सभी छात्रों ने उस शब्द को सभी लिखा।
मैं एकलौता था जिसनेे गलती की थी। उन्होंने लिखा है कि मैं अकेला बेवकूफ था। शिक्षक ने मुझे मेरी बेवकूफी बाद में समझाई, लेकिन मेरे मन पर इसका कोई असर न पड़ा। मैं दूसरे लड़कों की पट्टी में देखकर चोरी करना कभी न सीख सका।
उन्होंने आगे लिखा है कि इतने पर भी शिक्षक के प्रति मेरा आदर और विनय भाव कभी कम न हुआ। श्रेष्ठजनों के दोषों को नहीं देखना मेरा सहज और स्वाभाविक स्वभाव था। हालांकि बाद में इन शिक्षक के दूसरे दोष भी मेरे संज्ञान में आए, लेकिन इसका मुझ पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। मैंने अपने मूल स्वभाव को कभी नहीं छोड़ा। शिक्षकों के प्रति मेरा आदर सर्वदा बना रहा। मैं यह जानता था कि बड़ों का आज्ञा का पालन करना चाहिए।
2. पाठ का कंठस्थ करने के पीछे का राज
गांधी जी अपने पाठ का कंठस्थ किया करते थे। जानते हैं क्यों ? गांधी जी ने लिखा है कि सबक याद करना चाहिए। उन्होंने लिखा है कि किसी का उलाहना मुझसे सहा नहीं जाता और दूसरे शिक्षक को धोखा देना ठीक नहीं है। इसलिए मैं अपने पाठ को कंठस्थ किया करता था।
उन्होंने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि इसी समय के दो और प्रसंग मुझे हमेशा स्मरण रहते हैं। साधारणतः पाठशाला की पुस्तकों छोड़कर और कुछ पढ़ने का मुझे शौक नहीं था।
लेकिन मन अलसा जाता, इससे अक्सर सबक कच्चा रह जाता। ऐसी हालत में दूसरी कोई चीज पढ़ने की इच्छा क्यों होती ? किन्तु पिता जी की खरीदी हुई एक पुस्तक पर मेरी दृष्टि पड़ी। नाम था श्रवण-पितृभक्ति नाटक। मेरी इच्छा उसे पढ़ने की हुई और मैं उसे बड़े चाव के साथ पढ़ गया। उन्हीं दिनों शीशे मे चित्र दिखाने वाले भी घर-घर आते थे। उनके पास भी श्रवण का वह दृश्य भी देखा, जिसमें वह अपने माता-पिता को कांवर में बैठाकर यात्रा पर ले जाता हैं।
दोनों चीजों का मुझ पर गहरा प्रभाव पड़ा। मन में इच्छा होती कि मुझे भी श्रवण के समान बनना चाहिए। श्रवण की मृत्यु पर उसके माता-पिता का विलाप मुझे आज भी याद है। उस ललित छन्द को मैंने बाजे पर बजाना भी सीख लिया था। मुझे बाजा सीखने का शौक था और पिताजी ने एक बाजा दिया भी दिया था।
3. कैसे पड़ा राजा हरिश्चन्द्र का प्रभाव
इन्हीं दिनों कोई नाटक कंपनी आयी थी और उसका नाटक देखने की इजाजत मुझे मिली थी। उस नाटक को देखते हुए मैं थकता ही न था। हरिश्चन्द्र का आख्यान था। उसे बार-बार देखने की इच्छा होती थी। लेकिन यूं बार-बार जाने कौन देता? पर अपने मन में मैंने उस नाटक को सैकड़ों बार खेला होगा।
हरिश्चन्द्र की तरह सत्यवादी सब क्यों नहीं होते? यह धुन बनी रहती। हरिश्चन्द्र पर जैसी विपत्तियां पड़ी, वैसी विपत्तियों को भोगना और सत्य का पालन करना ही वास्तविक सत्य हैं। मैंने यह मान लिया था कि नाटक में जैसी लिखी हैं, वैसी विपत्तियां हरिश्चन्द्र पर पड़ी होगी।
हरिश्चन्द्र के दुःख देखकर उसका स्मरण करके मैं खूब रोया हूं। आज मेरी बुद्धि समझती हैं कि हरिश्चन्द्र कोई ऐतिहासिक व्यक्ति नहीं था। फिर भी मेरे विचार में हरिश्चन्द्र और श्रवण आज भी जीवित हैं। मैं मानता हूं कि आज भी उन नाटकों को पढ़ूं तो आज भी मेरी आंखों से आंसू बह निकलेंगे।