Analysis: पाकिस्तान पर असर दिखाती भारत की मुखर विदेश नीति, अब हम किसी से कम नहीं
भारत और फलस्तीन के संबंध आज के नहीं हैं। हालांकि हमने इजरायल को मान्यता दी, उसके साथ राजनयिक संबंध बनाए, लेकिन यह फलस्तीन की कीमत पर नहीं थी।
नई दिल्ली [अवधेश कुमार] । गत दिनों पाकिस्तान में फलस्तीन के राजदूत वलीद अबु अली ने पाकिस्तान के रावलपिंडी के लियाकत बाग में न सिर्फ हाफिज सईद की रैली में भाग लिया, बल्कि उन्होंने उसके साथ मंच भी साझा किया। हाफिज सईद भारत में केवल मुंबई हमले का ही मुख्य सूत्रधार नहीं है, अन्य अनेक आतंकवादी हमलों के पीछे भी उसका हाथ माना जाता है। ऐसे व्यक्ति के साथ अगर भारत का दोस्त माने जाने वाले किसी देश का राजदूत इस ढंग से दिखाई पड़ता है तो सहन करना संभव नहीं है।
भारत की नेतृत्वकारी भूमिका
आखिर यही भारत है जिसने अभी हाल ही में संयुक्त राष्ट्रसंघ की महासभा में अमेरिका के उस प्रस्ताव के खिलाफ मतदान किया जिसमें तेल अबीब की जगह यरुशलम को इजरायल की राजधानी बनाने की बात थी। कुल 127 विरोधी देशों के साथ भारत खड़ा था। यह कोई सामान्य निर्णय नहीं था। भारत में बहुसंख्य लोग मानते थे कि या तो हम अमेरिका के साथ हों या फिर मतदान से बहिर्गमन करें। यानी किसी तरह हमें अमेरिका और इजरायल के खिलाफ नहीं जाना चाहिए। आखिर उस प्रस्ताव से 35 देशों ने अपने को अलग रखा था और नौ देशों ने अमेरिका एवं इजरायल के पक्ष में मत भी दिया था। ऐसा हम भी कर सकते थे। यह सोच अव्यावहारिक भी नहीं थी। अमेरिका एवं भारत की निकटता इस समय जगजाहिर है। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने अपनी नई सुरक्षा रणनीति में किसी एक देश को सबसे ज्यादा महत्व दिया है और उसके बारे में सब कुछ सकरात्मक घोषित किया है तो वह है भारत। उसने हिंद प्रशांत से लेकर पूरे दक्षिण एशिया में भारत की नेतृत्वकारी भूमिका को स्वीकार किया है। यहां तक कि उसने पाकिस्तान को भी सीमा पार आतंकवाद बंद करने के लिए दबाव डालने की बात की है। वर्तमान एवं भविष्य में अमेरिका के साथ हमारी रणनीतिक साङोदारी अनेक मामलों में अपरिहार्य है। हमें उसके सहयोग और साथ की आवश्यकता है। ऐसे देश के खिलाफ जाना बहुत बड़ा जोखिम था। अमेरिका नाराज भी हो सकता था। यही नहीं इजरायल हमारे पक्ष में आज हर स्तर पर खड़ा है। यह सच भी है कि वह हमें दुनिया का बेहतरीन रडार दे रहा है, मिसाइल दे रहा है, सीमा रक्षा की तकनीक तक प्रदान कर रहा है, कम सिंचाई में बेहतर खेती की तकनीक एवं प्रशिक्षण दे रहा है। उसकी खुफिया एजेंसी ने अनेक ऐसी सूचनाएं हमें दी जिनसे हमारी सुरक्षा योजनाओं को बल मिला। वास्तव में इजरायल के साथ हमारे बहुस्तरीय सहयोग का दौर चल रहा है।
बिना किसी दबाव में भारत ने लिया फैसला
ऐसे समय में संयुक्त राष्ट्रसंघ में भारत के इस रवैये से संबंधों को धक्का भी पहुंच सकता था। बावजूद इसके भारत ने ऐसा किया, क्योंकि हम विदेश नीति के स्तर पर पूरी तरह स्वतंत्र निर्णय लेते हैं। हमारी विदेश नीति पूरी तरह संप्रभु है। जैसे ही फलस्तीन राजदूत और हाफिज सईद की तस्वीर आई, टिप्पणियां आनी शुरू हो गईं कि देखिए अपने दो मित्र देशों के खिलाफ हम जिसके लिए गए वह हमें बदले में दे रहा है हमारे देश के दुश्मन और आतंकवादी को अपना समर्थन। लेकिन आज का भारत पूर्व का भारत नहीं है। पूर्व में भारत की विदेश नीति में सकुचाहट का अंश ज्यादा होता था। हम बहुत सारी बातों पर प्रतिक्रिया ही नहीं देते थे। हमारे मन के प्रतिकूल कोई देश कुछ कदम उठा ले तो भी हम उसके समक्ष यह मामला उठाने से बचते थे। भारत अब उस ग्रंथि से बाहर निकल चुका है। इस तस्वीर के आने के साथ ही भारत सरकार ने जन भावनाओं के अनुरूप फलस्तीन के समक्ष यह मामला उठाया। पहले नई दिल्ली स्थित फलस्तीन के दूत को विदेश मंत्रलय बुलाकर अपनी नाराजगी जताई गई और उसके बाद रामल्ला में हमारे दूत ने वहां के विदेश मंत्री से मुलाकात कर भारत की भावनाओं से अवगत कराया। फलस्तीन के रवैये को देखते हुए कहा जा सकता है कि भारत की ओर से बिल्कुल खरी-खरी बात की गई।
भारत के दबाव के आगे फलस्तीन को झुकना पड़ा
जो परिणाम आया वह तो यही बताता है कि वाकई भारत ने पूरी सख्ती से मामले को उठाया। भारतीय विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता के बयान के कुछ ही देर बाद फलस्तीन ने न सिर्फ अपने राजदूत के व्यवहार पर खेद प्रकट किया, बल्कि यह भी घोषणा की दी कि वह पाकिस्तान से अपने राजदूत को वापस बुला रहा है। भारत स्थित फलस्तीन के राजदूत ने बयान दिया कि हमारे पाकिस्तान स्थित राजदूत ने जानबूझकर या अनजाने में गलती की है। भारत के साथ संबंध हमारे लिए काफी महत्वपूर्ण हैं। हम भारत के आतंकवाद के साथ संघर्ष में साथ हैं। अगर आप फलस्तीन सरकार, जिसे फलस्तीन अथॉरिटी कहते हैं उसके वक्तव्य पर ध्यान दें तो उसमें भी यही कहा गया है कि चाहे जिस इरादे से हमारे राजदूत ने भाग लिया इसे न्यायसंगत नहीं ठहराया जा सकता। सुनने में और सतही तौर पर देखने में यह साधारण घटना लगती हो, लेकिन है यह असाधारण। ऐसा पहले कभी नहीं हुआ। ध्यान रखिए जिस रैली में फलस्तीन के राजदूत ने हाफिज के साथ मंच साझा किया उसे पाकिस्तान के 40 मजहबी और अतिवादी समूहों के संगठन दिफोह-ए-पाकिस्तान काउंसिल ने आयोजित किया था। और इसका विषय क्या था? यरुशलम पर इजरायल का विरोध एवं फलस्तीन का समर्थन। यानी यह फलस्तीन के पक्ष में रैली थी। उसमें उसके राजदूत को स्वाभाविक ही बुलाया गया होगा। फलस्तीन भारत के समक्ष यह तर्क दे सकता था, किंतु यह भारतीय विदेश नीति की मुखरता थी कि इसने फलस्तीन के सामाने साफ कर दिया कि आपका कोई तर्क हमें मान्य नहीं होगा। हमारे साथ संबंध रखना है तो फिर हमारी भावनाओं का आपको सम्मान करना होगा। एक आतंकवादी, जो खुलेआम हमारे यहां हिंसा का आह्वान करता है, हिंसा कराता है उसके साथ किसी कारण से आपके राजदूत का एकता दिखाना हमें बर्दाश्त नहीं है।
यह ध्यान रखिए फलस्तीन के लिए राजदूत को वापस बुलाने का फैसला सामान्य नहीं रहा होगा। उसे इसका आभास था कि पाकिस्तान को यह पसंद नहीं आएगा। हालांकि पाकिस्तान की ओर से खुलकर कोई बयान नहीं दिया गया है, पर उसने भी फलस्तीन के नेताओं से अवश्य बातचीत की होगी। कहने का तात्पर्य यह कि भारत की मुखर विदेश नीति ने ऐसा परिणाम लाया है जिसके प्रभाव भविष्य में भी होंगे।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
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