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आसमान छूने की चाहत में नियति से लड़ रहा मासूम अरुण

कोटद्वार निवासी तीसरी कक्षा केे छात्र अरुण आज सबके लिए एक मिसाल कायम कर रहा है। दिव्यांग अरुण अपने हौसले से अपने सपनों की उड़ान भरने को तैयार है।

By Raksha PanthariEdited By: Published: Sat, 16 Dec 2017 03:18 PM (IST)Updated: Sat, 16 Dec 2017 08:47 PM (IST)
आसमान छूने की चाहत में नियति से लड़ रहा मासूम अरुण

कोटद्वार, [अजय खंतवाल]: सपने तो आसमान छूने के हैं, लेकिन कदम जरा भी साथ नहीं देते। हाथों के बल पर शरीर को घसीटकर स्कूल की दहलीज तक का सफर तो तय कर रहा, लेकिन वक्त के साथ चुनौतियां लगातार बढ़ती ही जा रही हैं। यह कहानी है पौड़ी जिले के जयहरीखाल ब्लाक स्थित ग्राम मेरुड़ा निवासी मासूम अरुण जदली की, जिसका कमर से नीचे का हिस्सा पूरी तरह निष्क्रिय है। सिस्टम ने खानापूर्ति के लिए उसे दिव्यांग प्रमाणपत्र तो दे दिया, लेकिन पेंशन आज तक नहीं मिली। पढ़-लिखकर आत्मनिर्भर बनने की उम्मीद संजोए इस मासूम के पठन-पाठन की भी कोई व्यवस्था नहीं की गई है। बावजूद इसके वह घिसट-घिसटकर स्कूल पहुंचता है।

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मेरुड़ा निवासी चंद्रमोहन जदली और लक्ष्मी जदली के घर अरुण के रूप में जन्मी पहली संतान की खुशी तब काफूर हो गई, जब पता चला कि अरुण के कमर से नीचे का हिस्सा पूरी तरह निष्क्रिय है। लिहाजा, वह न तो चल-फिर पाएगा और न उसे मल-मूत्र त्यागने का पता चल पाएगा। कमजोर आर्थिकी के बावजूद मां-बाप ने अरुण के इलाज में कोई कसर नहीं छोड़ी, लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ।

अरुण बड़ा होने लगा तो मां-बाप को उसकी शिक्षा की चिंता सताने लगी। आंगनबाड़ी केंद्र पहुंचे तो अरुण की स्थिति देख वहां तैनात कर्मियों ने उसे प्रवेश देने से साफ मना कर दिया। ऐसे में गांव के ही प्राथमिक विद्यालय की सहायक अध्यापक रिद्धि भट्ट टूटती उम्मीदों का सहारा बनी और साढ़े तीन वर्ष के अरुण को विद्यालय में प्रवेश दिलवा दिया। 

यह शिक्षा के प्रति अरुण की ललक ही थी कि विद्यालय में प्रवेश के बाद उसने स्कूल का दामन नहीं छोड़ा। कभी मां के कंधे पर बैठकर स्कूल जाता तो कभी हाथों के बल शरीर को घसीटता हुआ। वर्तमान में वह पांचवीं का छात्र है, लेकिन अब उसके लिए आगे की पढ़ाई जारी रख पाना चुनौती बन गया है। असल में आगे की पढ़ाई के लिए उसे बीहड़ रास्तों से होकर करीब साढ़े तीन किमी दूर जनता हाईस्कूल लयरसैण या चार किमी दूर राइंका मठाली जाना पड़ेगा, जो ऐसी स्थिति में संभव नहीं। 

परिवार की आर्थिकी भी ऐसी नहीं कि उसे स्कूल लाने-ले जाने के लिए कोई बेहतर व्यवस्था कर सके। सिस्टम ने भी उसे 75 फीसदी दिव्यांगता का प्रमाण पत्र तो थमा दिया, लेकिन पेंशन आज तक नहीं लग पाई। 

डायपर पर हो रहा खर्चा 

अरुण के कमर से नीचे का हिस्सा काम नहीं करता, सो घर वाले डायपर लगाकर उसे स्कूल भेजते हैं। शिक्षक रिद्धि भट्ट स्वयं कई मर्तबा उसके लिए डायपर खरीद कर लाती हैं। लेकिन, परिवार की आर्थिक स्थिति इतनी कमजोर है कि लगातार डायपर का खर्च नहीं उठा सकता। फिलहाल कोटद्वार की डू समथिंग सोसायटी के मयंक कोठारी बीते छह माह से डायपर का खर्चा उठा रहे हैं। 

आपको बता दें कि सर्व शिक्षा अभियान के तहत जरूरतमंद बच्चों को एस्कोर्ट भत्ते के नाम पर धनराशि दी जाती है, जो अरुण को आज तक नहीं मिली। 

कष्टों के साथ हुआ जन्म 

जन्म के समय अरुण के शरीर से नाल अलग नहीं हो पाई थी। जिसे डाक्टरों ने ऑपरेशन कर अलग तो कर दिया, लेकिन इस दौरान किसी नस को क्षति पहुंचने से उसके शरीर के निचले हिस्से ने कार्य करना बंद कर दिया। पिता ने चंडीगढ़ में अरुण का चेकअप कराया तो स्थिति स्पष्ट हुई। जैसे-तैसे धन का इंतजाम कर उन्होंने उसका दोबारा ऑपरेशन कराया, लेकिन फिर भी कोई फायदा नहीं हुआ।  

मेरुड़ा की सहायक अध्यापक रिद्धि भट्ट का कहना है कि नियति भले ही अरुण की परीक्षा ले रही हो, लेकिन यदि उसे प्रोत्साहन मिला तो वह पैरा गेम्स में पहचान बना सकता है। अरुण के पैर भले ही काम न कर पाते हों, लेकिन उसके हाथ बेहद शक्तिशाली हैं।

मुख्य शिक्षाधिकारी मदन सिंह रावत का कहना है कि विकलांग होने के बावजूद अरुण को एस्कोर्ट सुविधा न मिलना बेहद गंभीर है। इस बाबत संबंधित अधिकारी को निर्देशित किया जाएगा। बच्चे के शिक्षण में कोई बाधा नहीं आने दी जाएगी। 

वहीं जिला समाज कल्याण अधिकारी रतन सिंह रावल ने कहा कि किन कारणों से बच्चे की दिव्यांग पेंशन स्वीकृत नहीं हुई, इसकी पूरी जानकारी ली जाएगी। प्रयास होगा कि जल्द उसकी दिव्यांग पेंशन शुरू हो जाए।

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