उत्तराखंड राज्य आंदोलनकारियों को आरक्षण असंवैधानिक: हाईकोर्ट
हाईकोर्ट ने राज्य आंदोलनकारियों को सरकारी सेवा में क्षेतिज आरक्षण को असंवैधानिक घोषित कर दिया। इस फैसले से आंदोलनकारी जहां मायूस हैं, वहीं सरकार को भी झटका लगा है।
नैनीताल, [जेएनएन]: हाईकोर्ट की तीसरी बेंच ने उत्तराखंड राज्य आंदोलनकारियों को सरकारी नौकरियों में दस फीसद क्षैतिज आरक्षण देने को असंवैधानिक करार दिया है। प्रदेश सरकार के आरक्षण देने के फैसले के खिलाफ दायर याचिकाओं का निपटारा करते हुए अदालत ने यह फैसला दिया। इससे पहले हाईकोर्ट के दो न्यायाधीशों ने आरक्षण पर अलग-अलग निर्णय दिया था। इनमें से एक ने आरक्षण को सही ठहराया था, जबकि दूसरे ने असंवैधानिक। इसी के चलते मुख्य न्यायाधीश ने मामला तीसरे न्यायाधीश को सौंपा था।
मामला आठ साल से हाईकोर्ट में विचाराधीन था। इधर, राज्य सरकार का कहना है पूरे मामले का अध्ययन किया जाएगा, जबकि राज्य आंदोलनकारियों के लिए आरक्षण की पैरोकारी करने वाले अधिवक्ता रमन शाह ने फैसले को ऊपरी अदालत में चुनौती देने का एलान किया है।
न्यायाधीश लोकपाल सिंह की एकलपीठ पिछले दिनों मामले में सुनवाई पूरी कर चुकी थी। बुधवार दोपहर अदालत ने फैसला सुनाते हुए राज्य आंदोलनकारियों को सरकारी नौकरियों में दस फीसद क्षैतिज आरक्षण को असंवैधानिक करार दिया। अदालत ने राज्य सरकार के स्तर से तय आरक्षण को नई श्रेणी को नई मानते हुए, इसे असंवैधानिक ठहराया।
फैसले में कहा गया है कि संविधान के अनुच्छेद-16 में साफ उल्लेख है कि सरकारी सेवा के लिए प्रत्येक नागरिक को समान अवसर दिया जाएगा, ऐसे में क्षैतिज आरक्षण देना असंवैधानिक है।
2004 में हुआ था आरक्षण का जीओ
11 नवंबर 2004 को तत्कालीन मुख्यमंत्री एनडी तिवारी की सरकार ने उत्तराखंड राज्य आंदोलन में शहीद आंदोलनकारियों के परिजनों और घायल आंदोलनकारियों को सरकारी सेवाओं में दस फीसद क्षैतिज आरक्षण के दो शासनादेश जारी किए थे। इनमें एक राज्य लोक सेवा आयोग की परिधि के बाहर के पदों के लिए तो दूसरा आयोग की परिधि में आने वाले पदों के लिए था।
इसके बाद इसके तहत राज्य आंदोलनकारियों को सरकारी नौकरियों में आरक्षण दिया जाने लगा, लेकिन इस बीच वर्ष 2010 में मामला हाईकोर्ट पहुंच गया। इसके बाद वर्ष 2011 में हाईकोर्ट के न्यायाधीश तरुण अग्रवाल की एकलपीठ ने आरक्षण देने संबंधी राज्य सरकार के आदेश पर रोक लगा दी।
इसके बाद तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश बारिन घोष की अध्यक्षता वाली खंडपीठ में यह मामला पहुंचा, लेकिन याचिकर्ताओं की मांग पर वर्ष 2015 में इसे जस्टिस सुधांशु धूलिया व जस्टिस यूसी ध्यानी की खंडपीठ को सौंप दिया गया। इस पर फैसला देते हुए जस्टिस धूलिया ने आरक्षण नहीं देने का मत दिया, जबकि जस्टिस ध्यानी ने आरक्षण देने को विधि सम्मत करार दिया था। इसके मद्देनजर मुख्य न्यायाधीश ने मामला तीसरी बेंच को रेफर किया था।
राजभवन में लंबित है विधेयक
पूर्ववर्ती हरीश रावत सरकार ने क्षैतिज आरक्षण देने से संबंधी विधेयक कैबिनेट पारित करने के बाद मंजूरी के लिए राजभवन भेजा था। लेकिन, मामला हाईकोर्ट में विचाराधीन होने के चलते राजभवन ने इसे मंजूर नहीं किया।
870 पा चुके हैं नौकरी
आरक्षण का लाभ लेकर पूर्व में 870 घायल आंदोलनकारी विभिन्न सरकारी सेवाओं में नौकरी पा चुके हैं। कानून के जानकारों के मुताबिक ताजा फैसले का इन पर कोई असर नहीं पड़ेगा।
आदेश का होगा अध्ययन
उत्तराखंड के मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत ने कहा कि राज्य आंदोलनकारियों को क्षैतिज आरक्षण के मामले में हाईकोर्ट के आदेश का अध्ययन किया जाएगा। इसके बाद इस मामले में विधिक राय ली जाएगी। विस्तृत विचार विमर्श के बाद इस मसले पर आगे कार्रवाई की जाएगी।
राजभवन की मंजूरी का इंतजार
राज्य आंदोलनकारियों के अधिवक्ता रमन साह के मुताबिक राज्य आंदोलनकारी को अवार्ड नहीं रिवार्ड है क्षैतिज आरक्षण। सरकार आरक्षण देने का एक्ट पास कर चुकी है, जिसे राजभवन की मंजूरी का इंतजार है। हाई कोर्ट के फैसले को ऊपरी अदालत में चुनौती दी जाएगी।
यह भी पढ़ें: नगर निगम के विस्तार को हार्इकोर्ट में चुनौती, आठ मार्च को सुनवार्इ
यह भी पढ़ें: हार्इकोर्ट का आदेश, सुरक्षा मुहैया कराकर नाले का काम पूरा कराएं डीएम