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कंकरीट के जंगल और सीमेंट के घरों ने उजाड़ दिया गौरेया का आसियाना nainital news

गौरैया के संरक्षण की चिंता में एक दशक बीत गया। मगर कोशिश विश्व गौरैया दिवस पर व्याख्यानों तक ही सीमिट कर रह गई है।

By Skand ShuklaEdited By: Published: Fri, 20 Mar 2020 08:55 PM (IST)Updated: Fri, 20 Mar 2020 08:55 PM (IST)
कंकरीट के जंगल और सीमेंट के घरों ने उजाड़ दिया गौरेया का आसियाना nainital news
कंकरीट के जंगल और सीमेंट के घरों ने उजाड़ दिया गौरेया का आसियाना nainital news

द्वाराहाट, जगत सिंह रौतेला : गौरैया के संरक्षण की चिंता में एक दशक बीत गया। मगर कोशिश विश्व गौरैया दिवस पर व्याख्यानों तक ही सीमिट कर रह गई है। ज्योतिष विज्ञान के हिसाब से कभी घर के वास्तुशास्त्र से जुड़ी यह नन्ही चिरैया अब इंसान के मानसपटल से लगभग ओझल हो चुकी है। तभी तो नगरीय शक्ल लेते जा रहे गांव कस्बों में हमने भवन निर्माण की वह पुरानी बेजोड़ शैली को ही भुला दिया। नतीजतन, कंक्रीट के जंगलात में सीमेंट के भवनों से अब गौरैया के वास का नक्शा ही गायब हो चुका है।

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गांवों से पलायन के साथ गौरैया भी पलायन कर गई है। वहीं आधुनिकता की बयार में रासायनिक दवाओं व खाद के इस्तेमाल से भी नन्हीं चिरैया का वजूद संकट में है। हालांकि बड़े शहरों की चकाचौंध व प्रदूषण से बेजार गौरैया पर्वतीय क्षेत्रों में फिर भी नजर आ जाती है। मगर पर्यावरण एवं वन विशेषज्ञ कहते हैं कि हिमालयी राज्य में 50 से 60 फीसद गौरैया अब गुम सी हो गई है।

झांडि़यां खत्म होने से आया संकट

विशेषज्ञों की मानें तो अब भी समय है। शुक्र है कि इंसान के मकान में ही एक अदद घोंसले के सहारे अपने जीवन चक्र का तानाबाना बुनने वाली गौरैया ऊंचे हिमालयी क्षेत्रों से लेकर तराई भाबर तक घर आंगन में कम ही सही पर दिख तो रही है। मगर जिस तेजी से बदली संस्कृति व भवन शैली से गौरैया के वासस्थल खत्म हो रहे, उसी अनुपात में इनकी आबादी भी घटती जा रही। कंटीली झाडिय़ां मानव ने जिस गति से नष्ट की हैं। उतना ही संकट इस घरेलू चिडिय़ा पर भी छाया है।

गौत्याली के प्रति बढ़ता क्रेज भी एक कारण

बार्न स्वैलो (आंचलिक बोली में गौत्याली) चिडिय़ा की ओर बढ़ता इंसानी आकर्षण भी गौरैया के वजूद पर भारी पड़ता दिख रहा है। विदेशी प्रजाति का यह पक्षी उत्तराखंड में बहुतायत नजर आने लगा है। आर्थिक रूप से शुभ बताई जाने वाली बार्न स्वैलो आज घरों की शोभा बनी है। इस पक्षी को संरक्षण देने के कारण गौरैया से दूर होते जा रहे हैं। दाना पानी देना तो दूर, उसके घाेसले तक नष्ट कर िदए जा रहे हैैं। ऐसे में विलुप्त होने की ओर अग्रसर गौरैया के संरक्षण के लिए मात्र एक दिवस मना लेना ही नाकाफी होगा।

गौरैया संरक्षण में जुटे हैं जमुना मास्साब

राज्यपाल व शैलेश मटियानी पुरस्कार प्राप्त शिक्षक जमुना प्रसाद तिवारी की गौरैया को संरक्षित करने हेतु घौंसले बनाने की मुहिम जारी है। वह अब तक काष्ठ के सैकड़ों घौंसले तैयार कर वह विभिन्न माध्यमों से उन्हें स्थापित कर चुके हैं। स्वच्छ भारत अभियान के तहत बेकार पड़े कनस्तरों से गमले व कूड़ेदान बनाने के बाद कंटरमैंन नाम से पहचान बना चुके जमुना बीते दस वर्षों से लगातार पक्षियों के संरक्षण के लिए जागरूकता फैलाने का कार्य कर रहे हैं। उनके द्वारा राष्ट्रीय सेवा योजना, एनसीसी, स्काउट शिविरों, इको क्लब आदि माध्यमों से भी पक्षी संरक्षण हेतु नई पीढ़ी को जागरूक किया जा रहा है। जीआइसी बटुलिया में जीवविज्ञान के प्रवक्ता पद पर कार्यरत तिवारी ने बताया कि पारितंत्र के संतुलन में पक्षियों की महत्वपूर्ण भूमिका है। सुरक्षित भविष्य के लिए हमें प्रत्येक नागरिक को इनका महत्व समझाने की आवश्यकता है। संरक्षण कार्य जमीनी स्तर पर करने होंगे। शिक्षक तिवारी पर्यावरण संरक्षण वैज्ञानिक तथ्यों पर आधारित कविताएं भी लिखते हैं। आजकल गौरैया संरक्षण पर उनकी कविता 'वो मेरे गांव की चिडिय़ा' सोशल मीडिया में खूब सराही जा रही है। तिवारी अन्य की भांति गौरैया संरक्षण से संबंधित कार्यों को भी खुद के खर्चे पर चला रहे हैं।

इंसान व गौरैया के बीच सहजीविता का सिद्धांत

डॉ. रमेश सिंह बिष्ट, पर्यावरण विशेषज्ञ ने बताया कि इंसान व गौरैया के बीच सहजीविता का सिद्धांत लागू होता है। जाहिर है गांवों से पलायन होगा तो मानव मित्र गौरैया भी पलायन कर जाएगी। पर्वतीय क्षेत्रों में यह हो भी रहा है। जिन जगहों पर मानव हैं भी तो कंक्रीट के जंगल और वर्तमान शहरी भवन निर्माण शैली के कारण गौरैया का वास स्थल खत्म हो गया है। वहीं डॉ. जीवन सिंह मेहता, सदस्य वन अनुसंधान सलाहकार परिषद उत्तराखंड ने बताया कि हम अब आधुनिक हो चले हैं। लोक जीवन से दूर होते जा रहे हैैं। गौरैया घर में रहने वाली मानव मित्र चिडिय़ा है। गांवों का अपना पारस्थितिकी तंत्र काम करता है। लेकिन अब नगरीय शक्ल लेते जा रहे गांव कस्बों में गौरैया के लिए घर नहीं बनाए जा रहे हैैं। जीवनशैली में बदलाव के कारण उत्तराखंड के गांव कस्बों में गौरैया 50 से 60 फीसद कम हो गई है।

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