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तब झोपड़ी में थी रेंज ऑफि‍स और हाथी ने ले ली थी रेंजर की जान, फिर पक्‍के मकान में बनने लगे ऑफिस

जंगल के अंदर बने रेंज ऑफिस अब पक्के निर्माण में बदल चुके हैं। 70 के दशक तक अस्थायी झोपडिय़ों से काम लिया जाता था।

By Skand ShuklaEdited By: Published: Mon, 26 Aug 2019 03:34 PM (IST)Updated: Mon, 26 Aug 2019 03:34 PM (IST)
तब झोपड़ी में थी रेंज ऑफि‍स और हाथी ने ले ली थी रेंजर की जान, फिर पक्‍के मकान में बनने लगे ऑफिस

हल्द्वानी, जेएनएन : जंगल के अंदर बने रेंज ऑफिस अब पक्के निर्माण में बदल चुके हैं। 70 के दशक तक अस्थायी झोपडिय़ों से काम लिया जाता था। 1974-75 के बीच झोपड़ी में ठहरे एक रेंजर को हाथी के हमले में अपनी जान गंवानी पड़ी थी। उसके बाद से महकमे ने सुरक्षा की दुष्टि से इन झोपडिय़ों की जगह पक्के ऑफिस व आवास बनाने शुरू किए। 

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रेंजर गौला गणेश चंद्र त्रिपाठी के मुताबिक जंगल के अंदर हर रेंज का एक कार्यालय होता है। जिसका निर्माण उस रेंज की सीमा में आने वाले जंगल में ही होता है। ऑफिस के अलावा वन क्षेत्राधिकारी, फॉरेस्टर व फॉरेस्ट गार्ड के रुकने की व्यवस्था भी होती है। ताकि जंगल में गश्त के दौरान देरी होने पर विभाग का कर्मचारी आसानी से रात काट सके। वैसे तो सत्तर के दशक से इन झोपडिय़ों में बदलाव शुरू हो गया था, लेकिन 1974-75 के बीच हुए एक हादसे ने तेजी से इस दिशा में काम करवाया। वर्तमान में चम्पावत डिवीजन का हिस्सा बन चुकी दोगाड़ी रेंज (टनकपुर से जौलासाल) तब हल्द्वानी वन प्रभाग में शामिल थी। उस समय गोविंद सिंह बिष्ट के पास रेंज का चार्ज था। जंगल व वन्य संपदा की सुरक्षा को लेकर वह अलर्ट रहते थे। एक दिन झोपड़ी के बाहर घूम रहे हाथी ने हमला कर उन्हें गंभीर घायल कर दिया। जिस वजह से उनकी मौत हो गई। बाद में उनके बेटे जगत सिंह बिष्ट ने भी महकमे में बतौर डिप्टी रेंजर नौकरी की। रेंजर त्रिपाठी के मुताबिक हादसे के बाद तेजी से झोपड़ीनुमा कार्यालय व आवासों को पक्का करने का काम शुरू हो गया था। अब फॉरेस्ट गार्ड से लेकर रेंजर तक बगैर भय के रेंज ऑफिस में काम करने के साथ ठहर भी सकता है। 

...और हाथी से बचने के लिए भागते रहे फॉरेस्टर व गार्ड 

वर्तमान में गौला में रेंजर का जिम्मा संभाल रहे गणेश त्रिपाठी साल 1984 में बतौर फॉरेस्टर दक्षिणी जौलासाल के सूखीमठ में तैनात थे। एक शाम बाइक से वह फॉरेस्ट गार्ड द्वारिका नाथ गोस्वामी के साथ रेंज ऑफिस बाइक से जा रहे थे। जैसे ही भोला रोड (जंगल की सड़क) पर पहुंचे तो वनकर्मी ने बगल में हाथियों का झुंड देखा। फॉरेस्टर त्रिपाठी ने नीचे उतरकर बाइक को मोडऩे का प्रयास किया तो फॉरेस्ट गार्ड दौडऩे लगा। उसे देख त्रिपाठी ने भी दौड़ लगा दी। आधा किमी तक दोनों दौड़ते रहे। जिसके बाद जान बचाने को दोनों जंगल में छिप गए। फॉरेस्टर त्रिपाठी ने बताया कि साथ में छोटा बच्चा होने की वजह से हथिनी आक्रामक हो गई थी। आधा किमी तक फॉरेस्टर व हथिनी की दूरी सिर्फ एक संूड बराबर थी। वन आरक्षी गोस्वामी के पास बंदूक होने के बावजूद उन्होंने वन्यजीव को नुकसान न पहुंचे, इसलिए फायर तक नहीं किया। बाद में स्टाफ व ग्रामीणों ने मशाल लेकर झुंड को घने जंगल में पहुंचाया।

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