बागेश्वरी चरखा, जिसे बापू साथ ले गए थे वर्द्धा, जानिए और भी बहुत कुछ
बागेश्वरी चरखे ने एक दौर में बागेश्वर में ही नहीं पूरे देश में अपनी धमक जमाई थी। तब यहां पहाड़ में बड़े पैमाने में कताई बिनाई का काम होता था।
बागेश्वर (जेएनएन) : बागेश्वरी चरखे ने एक दौर में बागेश्वर में ही नहीं पूरे देश में अपनी धमक जमाई थी। तब यहां पहाड़ में बड़े पैमाने में कताई बिनाई का काम होता था। खुद महात्मा गांधी भी इस चरखे से इतने प्रभावित हुए की वह इसे अपने साथ वर्धा महाराष्ट्र ले गए। सरकारी उपेक्षा से समय के साथ यह चरखा अब इतिहास के पन्नों पर सिमट कर रह गया है।
कताई-बुनाई के लिए नहीं थे दूसरे साधन
वर्ष 1925 में बागेश्वरी चरखे का निर्माण जीत सिंह टंगडिय़ा निवासी बोरगांव, अमसरकोट ने किया। उस समय तक पहाड़ में ऊन की कताई बुनाई के लिए दूसरे साधन नहीं थे। तब हाथ से चलने वाले परंपरागत तकनीकी से कताई-बिनाई होती थी। जिससे काफी समय लग जाता था। उस समय कताई-बिनाई के और साधन नहीं होते थे। तब जीत सिंह टंगडिय़ा के पांव से चलने वाले बागेश्वरी चरखे का अविष्कार किया। तब इस चरखे ने पूरे पहाड़ में धूम मचा दी थी। इसमें ऊन कातना बहुत ही आसान था। इस चरखे से एक समय में काफी ऊन की कताई भी हो जाती थी।
अमसरकोट के पास होता था बागेश्वरी चरखे का निर्माण
जिला मुख्यालय से लगे बोरगांव अमसरकोट के पास इस बागेश्वरी चरखे का निर्माण होता था। मांग बढ़ते देख जीत सिंह टंगडिय़ा ने 1934 में बोरगांव, अमसरकोट में चरखा निर्माण कारोबार की स्थापना की। इसके निर्माण में पानी से चलने वाले घराट का प्रयोग होता था। हालांकि धीरे-धीरे यह बागेश्वरी चरखा अतीत का हिस्सा बन गया। फिर भी कुछ हरकरघा कारीगर पहाड़ में आज भी बागेश्वरी चरखे में कताई करते हैं।
पैर से चलने वाला देश का पहला चर्खा
बागेश्वरी चरखा पैर से चलने वाला देश का पहला चरखा 1925 से पहले पूरे देश में स्वदेशी आंदोलन अपने चरम पर था। जिस कारण हाथ से चलने वाला चरखा ही पूरे देश में कताई-बिनाई के लिए प्रयोग होता था। जीत सिंह टंगडिय़ा ने पैर से चलने वाला यह चरखा बनाया। जो हाथ से चलने वाले चरखे से अधिक उपयोगी व सरल था। गांधी जी 1929 में जब कौसानी प्रवास पर थे तो जीत सिंह टंगडिय़ां ने उन्हें यह बागेश्वरी चखरा भेंट किया। तब गांधी भी उनके इस अविष्कार के कायल हो गए थे।
नहीं मिल रही है किसी तरह की आर्थिक मदद
हेम प्रकाश सिंह टंगडिय़ा, प्रपौत्र, स्व. जीत सिंह टंगडिय़ा ने बताया कि लकड़ी उपलब्ध नहीं होने व सरकार की उदासीनता से यह कारोबार बंद हो गया है। हम चाहते हैं कि यह काम फिर से शुरू हो। लेकिन किसी तरह की मदद नहीं मिल रही हैं। आज भी यहां लोग दूर-दूर से इस चरखे को देखने के लिए पहुंचते हैं।
उद्दोग को पुनर्जीवित करने की होगी कोशिश
बीसी पाठक, महाप्रबंधक, उद्योग, ने इस बारे में कहा बागेश्वरी चरखे की डिमांड है। लेकिन उनके परिजनों का इस ओर कोई रुझान नहीं हैं। कोशिश करेंगे की यह उद्योग फिर से पुनर्जीवित करेंगे।
यह भी पढ़ें : आस्था और परंपरा के खूबसूरत रंगों की दुनिया है ऐपण, जानिए इस कला के बारे में
यह भी पढ़ें : मैदान ही नहीं अब पहाड़ पर भी करें पपीते की खेती, जानिए कैसे