अल्मोड़ा से हुआ कुमाऊं की रामलीला का आगाज
गोस्वामी तुलसीदास रचित रामचरित मानस पर आधारित रामलीला का मंचन कुमाऊं में सबसे पहले सांस्कृतिक नगरी अल्मोड़ा की पीठ पर शुरू हुआ था।
अनिल सनवाल, अल्मोड़ा। गोस्वामी तुलसीदास रचित रामचरित मानस पर आधारित रामलीला का मंचन कुमाऊं में सबसे पहले सांस्कृतिक नगरी अल्मोड़ा की पीठ पर शुरू हुआ था। गीत-नाट्य शैली पर आधारित इस मंचन की परंपरा 159 वर्ष पूर्व शुरू हुई थी।
1860 में सांस्कृतिक नगरी अल्मोड़ा के बद्रेश्वर में सबसे पहले मंचन किया गया। इसे तत्कालीन डिप्टी कलक्टर स्व. देवीदत्त जोशी ने प्रारंभ किया था। तब वर्षों तक बद्रेश्वर रामलीला का मंचन का केंद्र रहा। बाद में भूमि विवाद के चलते 1950-51 से यह ऐतिहासिक नंदादेवी के प्रांगण में जारी है। बद्रेश्वर में होने वाली रामलीला को आगे बढ़ाने वालों में पूर्व में स्व. केशव लाल साह, गोङ्क्षवद लाल साह मैनेजर, स्व. गंगा ङ्क्षसह बिष्ट एमएलए, चंद्र ङ्क्षसह नयाल, स्व. नंदन जोशी रहे। उसके बाद इस परंपरा को आगे बढ़ाने में स्व. डॉ. जगन्नाथ सनवाल, स्व. भुवन जोशी, स्व. ब्रजेंद्र लाल साह सहित अनेक दिवंगत संस्कृति प्रेमियों व कलाकारों का योगदान रहा।
छिलकों की रोशनी में होती थी रामलीला
पूर्व में बद्रेश्वर में होने वाली रामलीला छिलकों की रोशनी में की जाती थी। बाद में उजाले की व्यवस्था पेट्रोमेक्स से की जाने लगी। वर्तमान में आधुनिक तकनीक का प्रयोग रामलीलाओं में किया जाने लगा है।
नृत्य सम्राट पं. उदय शंकर भी प्रभावित रहे
इस रामलीला के मंचन से नृत्य सम्राट पं.उदय शंकर भी प्रभावित रहे। उन्होंने भी इस रामलीला के मंचन में अनेक प्रयोग किए। बाद में उन्होंने छाया चलचित्रों के माध्यम से मंचन को और आकर्षक बनाया। इसका प्रभाव आज भी दिखता है। वर्तमान में रामलीला के अनेक दृश्य छायाचित्रों के माध्यम से दिखाए जाते हैं। सुशील जोशी, संस्कृति प्रेमी का कहना है कि बद्रेश्वर की रामलीला का आकर्षण लोगों को दूर-दूर से खींच लाता है। हारमोनियम की सुरीली धुन, तबले की गमक और मंजीरे की खनक के साथ पात्रों का गायन कर्णप्रिय होता है। वर्तमान में नगर के लक्ष्मी भंडार, राजपुरा, कर्नाटक खोला, सरकार की आली, एनटीडी, धारानौला सहित अनेक स्थानों में रामलीला का मंचन होता है।
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