world Water Day: इनकी मेहनत लाई रंग, बूंदों को सहेज बरसाती नदी बन गई सदानीरा
गाडखर्क की एकदम सूखी रहने वाली पहाड़ी आज न सिर्फ हरे-भरे जंगल में तब्दील हो गई बल्कि वर्षा जल संरक्षण को किए गए प्रयासों के फलस्वरूप बरसाती नदी सदानीरा बन गई।
देहरादून, राज्य ब्यूरो। गंगा-यमुना जैसी नदियों के उद्गम स्थल उत्तराखंड में पिछली सदी में जंगलों को पनपाने के साथ ही बारिश की बूंदों को सहेजने की जो पहल हुई वह जनमानस के लिए प्रेरणा बन गई। पौड़ी जिले में उफरैंखाल से लगी गाडखर्क की एकदम सूखी रहने वाली पहाड़ी आज न सिर्फ हरे-भरे जंगल में तब्दील हो गई, बल्कि वर्षा जल संरक्षण को किए गए प्रयासों के फलस्वरूप बरसाती नदी सदानीरा बन गई। बदलाव की यह बयार बही पाणी राखो आंदोलन के प्रणोता सच्चिदानंद भारती के प्रयासों से। गाडखर्क की पहाड़ी और इससे निकलने वाली बरसाती नदी गाडगंगा को मिला नवजीवन जल संरक्षण के प्रयासों का एक नायाब नमूना बनकर उभरा है।
एक दौर में चिपको आंदोलन से जुड़े रहे पर्यावरणविद् सच्चिदानंद भारती बताते हैं कि वर्ष 1979 में जब वह अपने गांव गाडखर्क (उफरैंखाल) लौटे तो दूधातोली वन क्षेत्र में बड़े पैमाने पर पेड़ों का अवैध कटान हो रहा था। फिर उन्होंने पेड़ों को बचाने की मुहिम शुरू की। 1987में सूखे की मार पड़ी तो जंगल बचाने के लिए वर्षा जल को सहेजने को पाणी राखो आंदोलन शुरू किया। महिला मंगल दलों समेत ग्रामीणों की मदद से उफरैंखाल से लगी एकदम सूखी गाडखर्क की पहाड़ी को इसके लिए चुना गया।
भारती की पहल पर 1990 में महिला मंगल दलों समेत ग्रामीणों की मदद से 40 हेक्टेयर में फैली उफरैंखाल की पहाड़ी पर जल तलैंया (छोटे-छोटे तालाबनुमा गड्ढे) खोदी गईं। साथ ही वहां पानी सहेजने में सहायक बांज, बुरांस, पंय्या, अखरोट जैसी प्रजातियों के पौधे लगाए गए। कोशिशें रंग लाईं और 1999 में गाडखर्क की पहाड़ी ने हरियाली की चादर ओढ़ ली, जबकि बरसाती नदी सालभर पानी की कल-कल से गूंजने लगी।
लोग इस नदी से पानी पी रहे हैं। एक सूखी पहाड़ी को हरा-भरा करने के साथ ही बरसाती नदी को सदानीरा बनाने की पर्यावरणविद् भारती की पहल क्षेत्र के दर्जनों गांवों के प्रेरणास्नोत बनी है। भारती अभी भी चुप नहीं बैठे हैं, करीब 150 गांवों में भी वह महिला और युवक मंगल दलों के सहयोग से वन क्षेत्रों में जलतलैयां बनाने की मुहिम छेड़े हुए हैं और वहां भी बड़े पैमाने पर जल तलैंयां बनाने का क्रम बदस्तूर जारी है।
नदियां बचाने को निरंतर लड़ता एक योद्धा
अगर हम नदियों के दर्द को नहीं समझेंगे तो हालात बिगड़ते देर नहीं लगेगी। लिहाजा, नदियों को बांधने की बजाए ऐसा मैकेनिच्म विकसित करना होगा कि वे निर्बाध रूप से बहकर निरंतर जीवन देती रहें। कुछ ऐसी ही है नदी बचाओ आंदोलन के सूत्रधार सुरेश भाई की मुहिम। वह कहते हैं कि नदियों को बड़े बांध बनाकर नहीं रोका जाना चाहिए। अलबत्ता, बिजली की जरूरत पूरी करने के लिए छोटी-छोटी पनविद्युत परियोजनाओं को तवज्जो दी जानी चाहिए।
टिहरी जिले के ग्राम रग्सिया (बूढ़ाकेदार) में जन्मे सुरेश भाई का जल, जंगल और जमीन से लगाव बचपन से ही था। उन्होंने कुछ समय तक शिक्षण कार्य भी किया। 1994 में उन्हें जानकारी मिली की रयाला जंगल में पेड़ों का कटान हो रहा है। उन्होंने पेड़ों की रक्षा के लिए रक्षा सूत्र आंदोलन शुरु करने की ठानी। वजह ये थी कि इस जंगल से बालगंगा, धर्मगंगा और भिलंगना नदियां निकलती हैं। इसके बाद रक्षा सूत्र आंदोलन के तहत क्षेत्रवासियों के सहयोग से उन्होंने जंगल को कटने से बचाया।
राज्य गठन के बाद जब यहां की नदियों पर बड़ी संख्या में बांधों के निर्माण की बात उठी तो सुरेश भाई ने 2003 से इसका विरोध शुरू किया। परिणामस्वरूप नदी बचाओ आंदोलन ने जन्म लिया। सुरेश भाई बताते हैं कि धीरे-धीरे 150 संगठन इस मुहिम से जुड़ गए। परिणाम ये हुआ कि सरकार को अपने कदम पीछे खींचने पड़े।
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