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फ्लाईओवर से यात्रियों को सहूलियत मिलेगी, वहीं वन्यजीवों को भी आवाजाही में राहत

फोर लेन में तब्दील हो रहे इस राजमार्ग के चौड़ीकरण का अधिकांश कार्य 31 जनवरी तक पूरा हो जाएगा। इस पर निर्माणाधीन फ्लाईओवरों का काम अंतिम चरण में है। इससे जहां यात्रियों को सहूलियत मिलेगी वहीं फ्लाईओवरों के नीचे से वन्यजीव आसानी से एक से दूसरे जंगल में जा सकेंगे।

By Sunil Singh NegiEdited By: Published: Fri, 01 Jan 2021 04:53 PM (IST)Updated: Fri, 01 Jan 2021 04:53 PM (IST)
फ्लाईओवर से यात्रियों को सहूलियत मिलेगी, वहीं वन्यजीवों को भी आवाजाही में राहत
फ्लाईओवर से यात्रियों को सहूलियत मिलेगी, वहीं वन्यजीवों को भी आवाजाही में राहत।

केदार दत्त, देहरादून। वन्यजीव संरक्षण में अग्रणी भूमिका निभा रहे उत्तराखंड में बेजबानों की स्वच्छंद आवाजाही का मसला पिछले 20 वर्षों से फिजां में तैर रहा है। फिर चाहे वह हाथियों की आवाजाही के परंपरागत रास्तों (कॉरीडोर) को निर्बाध करने की बात हो या फिर विकास और जंगल के मध्य सामंजस्य स्थापित करते हुए वन्यजीवों के आने-जाने के लिए रास्ते सुगम बनाने की। इस दिशा में ठोस पहल कब परवान चढ़ेगी, ये तो भविष्य के गर्त में छिपा है। अलबत्ता, राजाजी टाइगर रिजर्व से गुजरने वाले हरिद्वार-देहरादून राजमार्ग ने कुछ उम्मीदें जरूर जगाई हैं। फोर लेन में तब्दील हो रहे इस राजमार्ग के चौड़ीकरण का अधिकांश कार्य 31 जनवरी तक पूरा हो जाएगा। इस पर निर्माणाधीन फ्लाईओवरों का काम अंतिम चरण में है। इससे जहां यात्रियों को सहूलियत मिलेगी, वहीं फ्लाईओवरों के नीचे से वन्यजीव आसानी से एक से दूसरे जंगल में जा सकेंगे। जाहिर है कि अब बेजबानों को भी राहत मिलेगी।

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समझ आया वन पंचायतों का महत्व

देर से ही सही, आखिरकार वन महकमे को वन पंचायतों का महत्व समझ आ ही गया। इनके कार्य क्षेत्र का दायरा बढ़ाने को चल रही कसरत इसकी तस्दीक करती है। असल में उत्तराखंड देश का एकमात्र ऐसा राज्य है, जहां जंगल पनपाने को वन पंचायत व्यवस्था चली आ रही है। वर्ष 1932 में वन पंचायतों के गठन की प्रक्रिया शुरू हुई और वर्तमान में राज्य के 11 जिलों में 12168 वन पंचायतें अस्तित्व में आ चुकी हैं। 7350.85 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैले जंगलों की जिम्मेदारी इनके कंधों पर है। अब वन पंचायतों के आसपास के आरक्षित वन क्षेत्रों में भी इनकी सेवाएं लेने की तैयारी है। निकट भविष्य में वे वन पंचायत से लगे आरक्षित वन क्षेत्रों के संरक्षण-संवद्र्धन और इन्हें आग से बचाने में योगदान देंगी। साथ ही उन्हें विभिन्न कार्यों के लिए बाह््य सहायतित योजनाओं से बजट भी दिया जाएगा। यानी, अब वन पंचायतें सशक्त होकर उभरेंगी।

सतर्कता का असर, महफूज रहे बेजबान

संभावित दिक्कत से पार पाने को यदि समय रहते कदम उठाए जाएं, तो बेहतर नतीजे सामने आते हैं। हर साल ही न्यू इयर ईव के जश्न से सहमे रहने वाले वन महकमे पर यदि इस बार कोई दाग नहीं लगा तो इसकी वजह है समय रहते सतर्कता को उठाए गए कदम। दरअसल, साल के आखिरी हफ्ते को वन्यजीव सुरक्षा के लिहाज से बेहद संवेदनशील माना जाता है। इस दौरान क्रिसमस से लेकर नववर्ष के स्वागत को होने वाले जश्न के मद्देनजर वन क्षेत्रों में स्थित और इनसे लगे वन विश्राम गृह, होटल-रिसॉट्र्स पैक रहते हैं। इस मर्तबा भी ये फुल रहे, लेकिन दिसंबर के दूसरे पखवाड़े से ही महकमा अलर्ट मोड पर आ गया था। उत्तर प्रदेश से लगी सीमा पर उप्र व उत्तराखंड के कार्मिकों की संयुक्त गश्त भी रंग लाई। सूरतेहाल, जश्न के माहौल में बेजबान महफूज रहे। ऐसी सतर्कता सालभर बनी रहे तो फिर कहना ही क्या।

नए मुखिया के सामने नई चुनौतियां 

उत्तराखंड वन विभाग के मुखिया की जिम्मेदारी अब वरिष्ठ आइएफएस राजीव भरतरी के कंधों पर है। हालांकि, वह उत्तराखंड के चप्पे-चप्पे से वाकिफ हैं, लेकिन बदली परिस्थितियों में उनके सामने भी चुनौतियां कम नहीं हैं। सबसे बड़ी चुनौती इस बार सर्दियों से ही सुलग रहे जंगलों को बचाने की है। गर्मियों में जंगल न धधकें, इसके लिए ठोस रणनीति की जरूरत है। इस बीच हरिद्वार में कुंभ भी होना है, लेकिन कुंभ मेला और आसपास के क्षेत्रों में हाथी, गुलदार जैसे वन्यजीवों की सक्रियता ने नींद उड़ाई हुई है। यद्यपि, हाथियों पर रेडियो कॉलर लगाकर निगरानी की मुहिम शुरू हुई है, मगर कुंभ के मद्देनजर अधिक सतर्कता की आवश्यकता है। इसके अलावा जंगलों के जमीनी रखवालों से लेकर आला अफसरों को भी सक्रिय रखने की चुनौती उनके सामने होगी। उम्मीद है कि सरकार व शासन से बेहतर तालमेल बैठाते हुए नए मुखिया हर चुनौती से पार पाने को कदम उठाएंगे।

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