हालात यही रहे तो दरकेंगी हिमालयी उम्मीदें, पढ़िए खबर
उत्तराखंड आर्थिक उम्मीदों को लेकर सहमा रहा। केंद्र की चौखट पर मुख्यमंत्री से लेकर वित्त मंत्री और अधिकारियों ने एड़ियां तो रगड़ीं, लेकिन अब फैसले की बारी 15वें वित्त आयोग की है।
देहरादून, रविंद्र बड़थ्वाल। उत्तराखंड धीरे-धीरे गंभीर वित्तीय संकट की ओर बढ़ रहा है। वजह संसाधनों की कमी नहीं, बल्कि हिमालयी राज्यों को लेकर जिस अलग दृष्टिकोण को अपनाने की दरकार है। खासतौर पर उत्तराखंड के परिप्रेक्ष्य में, केंद्र और राज्य की सरकारें पर्यावरण और पारिस्थितिकीय संतुलन के लिहाज से इस महत्वपूर्ण हिमालयी भू-भाग को लेकर ठोस नजरिया अपना नहीं सकी हैं।
71 फीसद वन क्षेत्र, हिमखंडों, बर्फ और जलाशयों से घिरा एशिया का सबसे बड़ा वाटर टैंक, धार्मिक आस्था, मान्यता, जनश्रुतियों के साथ ही गंगा-जमुनी तहजीब को फूलने-फलने में बड़ी मददगार रहीं गंगा और यमुना जैसी राष्ट्रीय नदियां। दोआब का ये क्षेत्र पूरे देश खासतौर पर उत्तरी भारत के तकरीबन सभी बड़े प्रदेशों को उपजाऊ मिट्टी और सिंचाई की सुविधा मुहैया करा रहा है। जड़ी-बूटी के विशाल भंडार वन और जल के अकूत संसाधनों के बावजूद बंदिशों ने विकास की जन आकांक्षाओं और आम जन की खुशहाली को बेड़ियों से जकड़ दिया है।
इस परेशानी का समाधान तो दूर उत्तराखंड की आर्थिक उम्मीदों को तब जोर का झटका लगा, जब एक ओर 14वें वित्त आयोग ने केंद्र से मिलने वाली करीब 2500 करोड़ की तमाम ग्रांट रोक दीं। ये तब हुआ जब वित्तीय अनुशासन और पर्यावरणीय जरूरतों को पूरा करने में उत्तराखंड देश के अन्य कई बड़े राज्यों से बहुत आगे है। वहीं जीएसटी लागू होने के बाद इसको अमलीजामा पहनाने वाले अग्रणी राज्यों में शुमार उत्तराखंड को आमदनी के बजाय राजस्व हानि उठानी पड़ रही है।
इन बड़े झटकों को सहने के लिए राज्य को अभी केंद्र से भी आर्थिक संबल नहीं मिला है। हालात में सुधार नहीं हुआ तो कहीं ऐसा न हो कि देश को प्राणवायु और उसकी नसों में जलराशि के रूप में रक्त का संचार करने वाले इस संवेदनशील हिमालयी राज्य को लेकर कहीं बहुत देर न हो जाए। 2018 में वर्षभर उत्तराखंड आर्थिक उम्मीदों को लेकर सहमा और ठिठका रहा। केंद्र की चौखट पर मुख्यमंत्री से लेकर वित्त मंत्री और आला अधिकारियों ने एडिय़ां तो रगड़ीं, लेकिन अब फैसले की बारी 15वें वित्त आयोग की है। देर हुई तो राज्य की उम्मीदों का पहाड़ दरक सकता है।
महज आर्थिक आंकड़ों के चश्मे से देखने से इस प्रमुख हिमालयी राज्य की सही तस्वीर सामने नहीं आ पाती है। पर्यावरणीय बंदिशों ने कुलांचे भरने को तैयार संसाधनों और संभावनाओं को ऐसे बांधकर रख दिया है कि उम्मीदों का दल-दल हर साल बढ़ रहा है।
राज्य बना, लेकिन नहीं थमा पलायन
जिस पानी और जवानी के निरंतर पलायन को थामने के लिए अलग उत्तराखंड राज्य का गठन हुआ था, राज्य बनने के 18 वर्षों में इसमें अपेक्षित कामयाबी नहीं मिल पाई है। वर्ष 2001 से लेकर 2011 तक जनगणना के आंकड़े जिस चिंताजनक तस्वीर की तस्दीक कर रहे हैं, उनमें पर्वतीय जिलों में लिंगानुपात में बढ़ा है। यह भविष्य में जनसंख्या वृद्धि दर और कम होने का संकेत माना जा रहा है। वर्ष 2001 की तुलना में 2011 में 17 गैर आबाद गांव कम हुए हैं। 418 गांव ऐसे हैं, जहां जनसंख्या 10 से कम है। इनमें पौड़ी जिले में सर्वाधिक 418 गांव हैं। इससे जाहिर है कि राज्य की आर्थिकी में ग्रामीण विशेष रूप से पर्वतीय ग्रामीण क्षेत्रों से पलायन को रोकने की दिशा में ठोस कदम नहीं उठ सके हैं। कुछ कदम उठे भी तो उनका जमीन पर बड़ा असर नदारद है।
गुणवत्तापरक शिक्षा और स्वास्थ्य की कमी
राज्य बने हुए 18 वर्षों में तीन सरकारें आईं और चली गईं। चौथी चल रही है। कई मुख्यमंत्री और मंत्री बन गए। आईएएस, पीसीएस से लेकर तमाम स्तरों पर नौकरशाहों का भारी-भरकम जमघट लग चुका है। बावजूद इसके आश्चर्यजनक तरीके से राज्य का बड़ा भू-भाग गुणवत्तापरक शिक्षा और स्वास्थ्य के लिए तरस रहा है। राज्य बनने की इस अवधि में सरकारों ने गाल तो खूब बजाए, लेकिन गंभीर समस्या का निदान ढूंढऩे में कारगर साबित नहीं हुई हैं। बगैर इन समस्याओं का समाधान किए, न तो पलायन रुकेगा और न ही रिवर्स पलायन की संभावनाएं बढ़ेंगी। आंकड़े गवाही दे रहे हैं कि राज्य के दूरदराज इलाकों से सर्वाधिक पलायन के मूल में ये दो बड़ी समस्याएं ही हैं।
बुनियादी सेवाएं, ढांचागत सुविधाओं और कनेक्टिविटी पहाड़ चढ़ने के नाम पर बार-बार फिसल रही हैं। खेती का पारंपरिक तरीका जरूरतों के मामले में ऊंट के मुंह में जीरा है। खेती को आधुनिक बनाने के लिए राज्य में स्थापित संबंधित क्षेत्र के विश्वविद्यालयों को खुद पढऩे और डिग्री लेने की दरकार है। राजभवन से लेकर नीति नियंता, विद्वान और शिक्षाविद भी विश्वविद्यालयों को क्षेत्रीय जरूरतों के मुताबिक ढलने की पुरजोर पैरवी कर चुके हैं, लेकिन इस दिशा में सोच विकसित नहीं हो पा रही है। आधुनिक खेती पहाड़ों में पैठ नहीं बना पा रही है। ऐसे में हर साल बंजर खेतों की संख्या बढ़ रही है। रेल और हवाई नेटवर्क के साथ ही बिजली की निर्बाध आपूर्ति का बेहतर नेटवर्क पनप नहीं पाया है।
पर्वतीय क्षेत्रों की आर्थिकी को बढ़ाने वाले उपाय
बागवानी: पर्वतीय क्षेत्रों में पलायन रोकने के लिए आर्थिकी को बेहतर बनाने के लिए नियोजित तरीके से कदम आगे बढऩे की दरकार है। प्रदेश के 60 फीसद परिवार कृषि पर निर्भर हैं। बागवानी आधारित एकीकृत कृषि को बढ़ावा देने से ग्रामीण आर्थिकी को मजबूत बनाया जा सकता है। जलवायु और जैव विविधता पर आधारित कृषि और बागवानी आमदनी का बेहतर जरिया बन सकती हैं। पूरे उत्तराखंड में खासतौर पर पर्वतीय क्षेत्र में जैविक खेती की भरपूर संभावनाएं हैं।
पर्यटन: प्रदेश में चार धाम समेत कई महत्वपूर्ण धार्मिक स्थल होने की वजह से वर्षभर श्रद्धालुओं की आवाजाही और धार्मिक पर्यटन चलता रहता है। ढांचागत सुविधाओं और हॉस्पिटलिटी इंडस्ट्री की मदद से पर्यटन को और वृहत्तर रूप देने की पूरी संभावनाएं उत्तराखंड में हैं। सामूहिक और क्लस्टर के आधार पर होम स्टे के माध्यम से प्रदेश के अधिक से अधिक परिवारों को पर्यटन से जोड़कर आजीविका की वैकल्पिक व्यवस्था की जरूरत है।
जलविद्युत ऊर्जा: जलविद्युत राज्य की आमदनी का बड़ा संसाधन बन सकता है। राज्य की 34 अहम जलविद्युत परियोजनाएं रुकी हुई हैं। बड़ी जलविद्युत परियोजनाओं पर रोक के बाद छोटी जलविद्युत परियोजनाओं को लेकर ठोस कदम नहीं उठाए जा सके हैं। छोटी परियोजनाएं राज्य में कृषि, बागवानी और लघु-कुटीर उद्योगों के नेटवर्क को नई शक्ल दे सकते हैं।
15वें वित्त आयोग से उम्मीदें
बड़ा विषम भू-भाग, कार्मिकों के वेतन, भत्ते, मानदेय, पेंशन और अधिष्ठान पर सालाना 16 हजार करोड़ से ज्यादा खर्चा। इस खर्च के बढ़ने से राज्य को हर साल विकास कार्यों के लिए धन की कमी बनी हुई है। कुल बजट का 31.55 फीसद हिस्सा सिर्फ वेतन, भत्ते, मजदूरी समेत अधिष्ठान पर खर्च हो रहा है। उम्मीद की जा रही है कि राज्य ने पर्यावरण समेत कारणों से राज्य के आर्थिक विकास में दिक्कतों को 15वें वित्त आयोग के समक्ष पुरजोर तरीके से रखा है। सामाजिक-आर्थिक विषमताएं रोकने के लिए आयोग ने राज्य को पर्याप्त मदद देने का भरोसा दिलाया है।
अहम परियोजनाओं पर टिकी उम्मीदें
राज्य को केंद्र सरकार की महत्वाकांक्षी परियोजनाएं केदारनाथ पुनर्निर्माण, ऑल वेदर रोड, ऋषिकेश-कर्णप्रयाग रेल लाइन, भारतमाला परियोजनाओं से ढांचागत विकास में बड़ी मदद मिलने की उम्मीद है।
आर्थिक आंकड़ों में खुशहाली तो गम भी
उत्तराखंड में प्रति व्यक्ति आय 16177 रुपये बढ़ी है, जबकि राष्ट्रीय स्तर पर प्रति व्यक्ति आय अभी 1,12,835 रुपये है। वर्ष 2016-17 की तुलना में 2017-18 में राज्य की अर्थव्यवस्था के आकार में 11.54 फीसद की वृद्धि हो चुकी है। राज्य सकल घरेलू उत्पाद (जीएसडीपी) 214033 करोड़ अनुमानित है। इन्वेस्टर्स समिट के चलते उद्योगों की भागीदारी बढ़ी तो जीएसडीपी से लेकर प्रति व्यक्ति आमदनी में और इजाफा होना तय हो जाएगा। हालांकि जिलों में प्रति व्यक्ति आय के आंकड़े देखें तो साफ पता चलता है कि हरिद्वार, देहरादून, ऊधमसिंहनगर जिलों में प्रति व्यक्ति आय क्रमश: 2,54,050, 1,95,925, 1,87,313 रुपये राज्य की औसत प्रति व्यक्ति आय से करीब 1,61,102 रुपये से अधिक है। सभी पर्वतीय जिलों की प्रति व्यक्ति आय कम है।
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