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पहाड़ों पर जमी हुई जिंदगी मानो जख्मों से कराह रही

चांदी सी चमकती चोटियां दूर से भले ही नयनों को सुहाएं लेकिन यहां जमी हुई जिंदगी मानो जख्मों से कराह रही है। तुर्रा यह कि सिस्टम इन जख्मों पर नमक छिड़क रहा है।

By Sunil NegiEdited By: Published: Sun, 19 Jan 2020 04:52 PM (IST)Updated: Sun, 19 Jan 2020 04:52 PM (IST)
पहाड़ों पर जमी हुई जिंदगी मानो जख्मों से कराह रही
पहाड़ों पर जमी हुई जिंदगी मानो जख्मों से कराह रही

देहरादून, किरण शर्मा। पहाड़ का सच पहाड़ सा ही कठोर है। चांदी सी चमकती चोटियां दूर से भले ही नयनों को सुहाएं, लेकिन यहां जमी हुई जिंदगी मानो जख्मों से कराह रही है। तुर्रा यह कि सिस्टम इन जख्मों पर नमक छिड़क रहा है।

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पिछले दिनों उत्तरकाशी जिले के बड़कोट से आइटीआइ के सात छात्रों में से एक को इसलिए जान गंवानी पड़ी कि सड़क बंद थी और उन्होंने घर जाने के लिए पैदल रास्ते का सहारा लिया। रास्ता भटके तो किसी तरह पुलिस ने उन्हें तलाश लिया, मगर एक छात्र की जान नहीं बचाई जा सकी। सवाल उठेगा इसमें सिस्टम का क्या दोष? दोष है, यदि सड़क खोलने के बेहतर इंतजाम होते तो उसकी जान क्यों जाती। आज भी नमक और चूने के सहारे ही बर्फ पिघलने का इंतजार किया जा रहा है। विषम भूगोल वाले उत्तराखंड में हर साल ये परिस्थितियां बनती हैं। बावजूद इसके पूरे प्रदेश में सिर्फ दो स्नो कटर मशीन हैं। एक गढ़वाल और दूसरी कुमाऊं मंडल में। जमाना बदल रहा है, ये सिस्टम कब बदलेगा।

सुन्न सिस्टम में हौसलों की उड़ान

सिस्टम सुन्न है तो क्या। हौसलों के लिए कटे पंख मायने नहीं रखते। अल्मोड़ा जिले के ताड़ीखेत ब्लॉक के तोक खैराली गांव की महिलाओं ने तीन दिन में ही कोसी नदी पर लकड़ी का पुल बना अपने गांव को मुख्य धारा से जोड़ दिया। गांव के 70 परिवारों के लिए सबसे बड़ी चुनौती थी बच्चे। बच्चों को नदी में तैरकर स्कूल जाना पड़ता था। ये अकेला उदाहरण नहीं है।

पिछले साल चमोली जिले के स्यूंसी गांव के लोगों ने सिस्टम की उदासीनता से खिन्न होकर सड़क के लिए स्वयं कुदाल उठा ली थी। दरअसल, गांव में 10 साल में सात किलोमीटर पैदल रास्ता 28 लोगों की जान ले चुका था। लंबे संघर्ष के बाद सड़क को मंजूरी मिली, मुख्यमंत्री ने शिलान्यास भी किया। बावजूद इसके अढ़ाई कोस भी न चल पाए। आखिरकार मायूस माझियों ने स्वयं हाथों में कुदाल थाम ली।  पौड़ी जिले के नैनीडांडा ब्लॉक स्थित आंसौ-बाखली की कहानी भी ऐसी ही है। सवाल फिर वही है, अपनों के राज में ये कैसा सिस्टम।

धन्य है ऊर्जा निगम...

वाह रे ऊर्जा निगम! गुनाह एक लेकिन सजा दो तरीके की। एक के सामने लठैत वाला अंदाज और दूसरे के सामने याचक। क्या कहने निगम की इस अदा के। बिजली के बिल अदायगी के नियम शायद सिर्फ आमजन के लिए है, पहुंच वालों के लिए जैसे सब कुछ माफ है। निगम की यह अदा न तब बदली और न अब। गरीब की बिजली काटने में भले ही तत्परता दिखायी जाती हो, लेकिन रसूखदार के कनेक्शन पर कैसे हाथ लगाएं। ताजा उदाहरण हरिद्वार जिले के मंगलौर कस्बे का है। यहां एक नेताजी ने अपने आवास में बिजली का कनेक्शन तो ले लिया, पर बिजली का बिल जमा करने की जरूरत ही नहीं समझी। एक के बाद एक करके दस साल यूं ही गुजर गए। ऊर्जा निगम ने भी ऐसे आंखें मूंद ली जैसे कनेक्शन गिफ्ट कर दिया। 70 हजार की उधारी के लिए अधिकारी अब गांधीगीरी करके याचक बन रहे हैं। धन्य है ऊर्जा निगम...।

...और यह भी

वक्त देखिए, कैसे बदल रहा है। कभी गुलदार जंगलों में घूमते थे, आज शहरों में घूम रहे हैं। इंसान जो गांव-शहर में रहता था वो जंगल कब्जा रहा है। आदमी तो बदल ही रहा है, लेकिन गुलदार में आए बदलाव चिंता का सबब हैं। ये परिवर्तन ऐसे हैं कि चिंता स्वाभाविक है। गुलदार खाने के लिए अब कब्र भी खोदने लगे हैं। घात लगाकर हमला करने में माहिर यह जीव तेजी से नरभक्षी बन रहा है।

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गुलदार के व्यवहार में आए इस परिवर्तन का अध्ययन तो वन्य जीव विशेषज्ञ करेंगे ही, लेकिन मोटेतौर पर देखें तो यह मानव-वन्य जीव संघर्ष की पराकाष्ठा ही है। जैसा कि बताया जा रहा है कि प्रदेश में वन बढ़ रहे हैं, लेकिन क्या फूड चेन को लेकर भी कोई अध्ययन किया गया है। कहीं ऐसा तो नहीं कि बढ़ते जंगलों के बीच उस जीवन का पनपना कम हुआ हो, जो गुलदार का आहार है। आखिर सवाल सह अस्तित्व का है, पारिस्थितिकीय तंत्र को तो इंसान भी चाहिए और गुलदार भी।

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