चार दिन की चांदनी के बाद गैरसैंण फिर सन्नाटे में
चार दिन की चांदनी के बाद गैरसैंण फिर सन्नाटे में है। सप्ताह भर पहले की रौनक अब कहीं नजर नहीं आ रही। बजट सत्र के बाद सरकार देहरादून लौट गई।
देहरादून, किरण शर्मा। चार दिन की चांदनी के बाद गैरसैंण फिर सन्नाटे में है। सप्ताह भर पहले की रौनक अब कहीं नजर नहीं आ रही। बजट सत्र के बाद सरकार देहरादून लौट गई। हालांकि अभी 24 मार्च को फिर हुक्काम लौटेंगे तो चहल-पहल भी लौट आएगी। ग्रीष्मकालीन राजधानी की प्यास बुझाने के लिए पानी अब भी बहुत दूर से आ रहा है। बावजूद इसके आसपास के गांवों में उत्साह बरकरार है। भविष्य की योजनाएं बनाई जा रही हैं। गांव के चौबारों में लोग आने वाले स्वप्निल दिनों की चर्चा में मशगूल हैं। इस चर्चा के बीच में आशा की किरण पर आशंका के बादल भी सिर उठा रहे हैं। कोई पूछ रहा है कि सरकार ने घोषणा तो कर दी है, लेकिन राजधानी का सपना साकार होने में कितने दिन लगेंगे। जितने मुंह उतनी बातें। खैर, इसमें कोई दो राय नहीं कि सन्नाटे के बीच उत्साह का कोलाहल उम्मीदें परवान चढ़ा रहा है।
उलटा बांस बरेली
उलटा बांस बरेली। इन दिनों मौसम इसी कहावत को चरितार्थ कर रहा है। मार्च का दूसरा पखवाड़ा बीत गया, लेकिन झड़ी ऐसी कि मानो सावन का महीना हो। अरसा बीत गया, ऐसा मौसम देखे। मार्च माह में पहाड़ बर्फ से ढके हुए हैं। चार धाम यात्रा में दो माह से भी कम का समय बचा हुआ है और ये मौसम है कि परीक्षा लेने से बाज नहीं आ रहा। केदारनाथ धाम में पैदल मार्ग से बर्फ हटा रही टीम बाबा केदार से खैर मना रही है। बस बर्फ गिरना बंद हो तो रास्ते को दुरुस्त किया जाए। एक बार रास्ता साफ कर दिया था, लेकिन कुदरत पर किसका वश है, फिर बर्फ से पट गया। अब इंतजार करने में ही भलाई है। मौसम ठीक हो जाए तो आगे की सुध लें। यही हाल बदरीनाथ, गंगोत्री और यमुनोत्री धाम में भी है। अब यह तो अपने हाथ की बात नहीं है।
छींका टूट गया
बिल्ली के भाग से छींका टूटा। मौसम की उलटबांसियों से लोग भले ही परेशान हों, लेकिन वन विभाग के लिए मौसम का यह मिजाज किसी वरदान से कम नहीं है। 15 फरवरी से फायर सीजन शुरू हो चुका है। हालांकि विभाग के अनुसार तैयारियां पूरी हैं, लेकिन ये तैयारियां हर साल होती हैं और हकीकत क्या है, यह बताने की जरूरत नहीं है। यह वही राज्य है जहां वर्ष 2016 में जंगल धधके तो हालात नियंत्रण के बाहर चले गए। बेबसी में सेना और वायुसेना की मदद लेनी पड़ी। स्थिति यह रही आग बुझाने के लिए हेलीकाप्टर से पानी का छिड़काव किया गया। यह तो रही आग की भयावहता की बात। अब बात विभाग के संसाधनों की। 21वीं सदी में भी वन विभाग आग बुझाने के लिए झांपे पर ही निर्भर है। यह सही है कि संसाधनों की कमी है, लेकिन जो हैं क्या उनका उपयोग हो पा रहा है।
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...और अंत में
पहाड़ की पीड़ा को पहाड़ ही महसूस कर सकता है। पहाड़ की मिट्टी भी फिसलकर मैदानों में आ जाती है तो इन्सान को लेकर क्या कहें। पलायन का असर हर कहीं देखा जा सकता है। अब हेल्दी फूड में शुमार मंडुवे को ही लें। कभी उत्तराखंड आंदोलन के दौरान नारा गूंजता था कि 'मंडुवा-झंगोरा खाएंगे, उत्तराखंड बनाएंगे।' आलम यह है कि गेहूं और धान के बाद सर्वाधिक पैदावार वाली इस फसल को भी मानो घर में जगह नहीं मिल पा रही है। उत्तराखंड बनने के बाद से इसके रकबे में 47 हजार हेक्टेयर की कमी आई है। से अधिक घटा है। इसके अलावा झंगोरा का क्षेत्रफल भी इस अवधि में 46408 हेक्टेयर पर आ गया है। हालांकि सरकार इन फसलों को प्रोत्साहित करने के लिए तमाम प्रयास कर रही है, लेकिन ये प्रयास तभी फलीभूत होंगे, जब गांवों में लोग रहेंगे। लोग तभी रहेंगे जब रोजगार के साधन उत्पन्न होंगे।
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