उत्तराखंड में कहीं वन कानूनों का पहरा, तो कहीं ईको सेंसिटिव जोन की बंदिश
कहने को तो उत्तराखंड प्राकृतिक संसाधनों के मामले में बेहद धनी हैं मगर इनका लाभ उन्हें नहीं मिल पा रहा है। कहीं वन कानूनों का पहरा है तो कहीं ईको सेंसिटिव जोन की बंदिशें।
देहरादून, केदार दत्त। प्राकृतिक संसाधनों की प्रचुरता, मगर झोली फिर भी रीती। यह है उत्तराखंड समेत हिमालयी राज्यों की तस्वीर। कहने को तो वे प्राकृतिक संसाधनों के मामले में बेहद धनी हैं, मगर इनका लाभ उन्हें नहीं मिल पा रहा है। कहीं वन कानूनों का पहरा है तो कहीं ईको सेंसिटिव जोन की बंदिशें। उत्तराखंड के नजरिये से ही देखें तो इन्हीं कारणों के चलते तीन दर्जन के करीब जल विद्युत परियोजनाएं लटकी हैं तो सड़क, पेयजल जैसी मूलभूत सुविधाओं से जुड़े प्रस्ताव फंसे हुए हैं। इसके अलावा अन्य तमाम दुश्वारियां मुंहबाए खड़ी हैं। ऐसे में हिमालयी क्षेत्र के बांशिदों के अस्तित्व का ही सवाल खड़ा हो गया है।
यह किसी से छिपा नहीं है कि हिमालय के प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष दोनों ही लाभ हम भोगते आए हैं और भोग रहे हैं। हवा, पानी, मिट्टी, जंगल जैसे हिमालयी उत्पादों ने सभ्यता को जन्म दिया है। प्राकृतिक संसाधनों के इस विपुल भंडार से ही देश में वन और खेत फूलते-फलते हैं। देश के 65 फीसदी लोगों के हिस्से का पानी भी इसी की देन है। हर पल ली जाने वाली प्राणवायु भी हिमालय की बदौलत ही है।
बावजूद इसके तस्वीर का दूसरा पहलू भी है। प्राकृतिक संसाधनों की प्रचुरता के बाद भी उत्तराखंड समेत हिमालयी राज्यों को तरक्की के लिहाज से अपेक्षित लाभ उन्हें नहीं मिल पा रहा। वन भूभाग की अधिकता के कारण वे इनका नाममात्र को भी उपयोग नहीं कर पा रहे। उत्तराखंड के लिहाज से ही देखें तो हिमालय के रूप में वृहद वाटर टैंक के साथ ही गंगा-यमुना समेत बड़ी संख्या में नदियों का उदगम स्थल होने के बावजूद यहां के 500 से ज्यादा गांव आज भी पेयजल को तरस रहे हैं।
जल संसाधन प्रचुर मात्रा में हैं, मगर राज्य इनका उपयोग आर्थिकी संवारने में नहीं कर पा रहे हैं। वन कानूनों और इको सेंसिटिव जोन की बंदिशों ने इस राह में रोड़े अटकाए हैं। कहने को तो राज्य में जलविद्युत परियोजनाओं की अपार संभावनाएं हैं, मगर आलम ये है कि वन कानूनों व ईको सेंसिटिव जोन की जद में आने से तीन दर्जन के करीब परियोजनाएं अधर में लटकी हुई हैं। ऐसे में उत्तराखंड के ऊर्जा प्रदेश बनने का सपना साकार नहीं हो पा रहा।
तरक्की के लिए पहली पायदान मानी जाने वाली सड़कें वन अधिनियम के कारण अटक रही हैं। गांवों को जोड़ने वाली 300 के लगभग सड़कों के प्रस्ताव पूर्व में वापस लौटा दिए गए थे। यही नहीं, चारधाम को जोड़ने वाली ऑल वेदर रोड परियोजना में भी कुछ स्थानों पर ईको सेंसिटिव जोन की बाधा से पार पाने को मशक्कत करनी पड़ रही है। यही नहीं, जंगलों के साथ ही वन्यजीवों के संरक्षण में सक्रिय भागीदारी निभा रहे राज्य को तमाम दुश्वारियों से भी दो-चार होना पड़ रहा है। राज्य गठन के बाद से ही अब तक छह सौ लोग वन्यजीवों के हमलों में जान गंवा चुके हैं, जबकि इसके तीन गुना से अधिक घायल हुए हैं।
इस सबके बीच हिमालय के संरक्षण की बात तो निरंतर होती आ रही है, मगर बड़ा सवाल ये कि जब वहां लोग नहीं रहेंगे तो इसे बचाएगा कौन। विकास और पर्यावरण के बीच छिड़े द्वंद्व के कारण विकास योजनाएं परवान नहीं चढ़ पा रही हैं। ऐसे में पहाड़ के गांवों से पलायन का सिलसिला तेज हुआ है। जाहिर है कि हिमालयी क्षेत्र के संरक्षण को जरूरी है कि वहां के निवासियों के हितों को संरक्षित रखा जाए। बात समझने की है कि जब लोग ही नहीं रहेंगे तो हिमालय को बचाएगा कौन। उम्मीद की जानी चाहिए कि हिमालयन कॉन्क्लेव में इस मसले पर गहनता से मंथन होगा और फिर केंद्र के समक्ष इसे गंभीरता से रखा जाएगा।
हिमालय से जुड़े तथ्य
- देश में जम्मू-कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, सिक्किम, अरुणाचल, मिजोरम, त्रिपुरा, मणिपुर, मेघालय, नगालैंड, असोम तक फैला है हिमालय।
- भारत के कुल भौगोलिक क्षेत्रफल के 16.3 प्रतिशत क्षेत्र में विस्तार लिए हिमालयी क्षेत्र है वृहद वाटर टैंक।
- देश के इको सिस्टम को संवारने में हिमालयी राज्यों की अहम भूमिका, उत्तराखंड दे रहा तीन लाख करोड़ की इको सिस्टम सर्विसेज
- हिमालयी क्षेत्र से निकलने वाली नदियां करीब 60 फीसद पानी की करती हैं आपूर्ति
- हिमालय शुद्ध ऑक्सीजन का भंडार है, जो पूरे देश के लिए जीवनदायिनी है।
- कार्बन सोखने के साथ ही बदलते मौसम व जलवायु परिवर्तन को नियंत्रित करता है।
- अध्यात्मिक प्रेरणा का स्रोत और कुदरत की अनुपम देन हिमालय जड़ी-बूटियों का विपुल भंडार है।
- देश के रक्षक की भूमिका में भी है जैव विविधता के मामले में धनी हिमालय।
- दुनिया की नवीनतम और सर्वोच्च पर्वत श्रृंखला है हिमालय। वैज्ञानिकों के मुताबिक हर साल पांच मिमी बढ़ रही इसकी ऊंचाई।
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