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सनातन है गढ़वाल की होली, सतयुग से ही यहां मनाई जाती रही है होली

गढ़वाल देश का पहला ऐसा क्षेत्र है जहां होली सिर्फ द्वापर या त्रेता में ही प्रचलित नहीं रही बल्कि वह सतयुग में ब्रह्मा विष्णु महेश की होली मानी जाती है।

By Sunil NegiEdited By: Published: Mon, 18 Mar 2019 05:20 PM (IST)Updated: Thu, 21 Mar 2019 05:00 PM (IST)
सनातन है गढ़वाल की होली, सतयुग से ही यहां मनाई जाती रही है होली
सनातन है गढ़वाल की होली, सतयुग से ही यहां मनाई जाती रही है होली

देहरादून, दिनेश कुकरेती। होली गढ़वाल का सनातन पर्व है। माना जाता है कि सतयुग से ही गढ़वाल में होली मनाई जाती रही है। इसका जिक्र होली के गीतों में होता है। देखा जाए तो गढ़वाल की होली महज आमोद-प्रमोद का ही नहीं, बल्कि अध्यात्म का भी अनूठा पर्व है। 

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गढ़वाल की होली कुमाऊं की होली से सैकड़ों वर्ष पुरानी है। संभवत: गढ़वाल देश का पहला ऐसा क्षेत्र है, जहां होली सिर्फ द्वापर या त्रेता में ही प्रचलित नहीं रही, बल्कि वह सतयुग में ब्रह्मा, विष्णु, महेश की होली मानी जाती है। इसीलिए उत्तराखंड में सतयुग के होली गीत (पृथ्वी संरचना को दर्शाते शिव की होली के गीत) प्रचलन में हैं। जैसे- 'जल बीच कमल को फूल उगो, अब भाई कमल से ब्रह्मा उगो, ब्रह्मा की नाभि से सृष्टि है पैदा, ब्रह्मा सृष्टि की रंचना करो। ' यह उत्तराखंड हिमालय की होली का ऐसा पहला गीत है, जिसे सिर्फ गढ़वाल क्षेत्र में तब गाया जाता है, जब फाल्गुन शुक्ल सप्तमी को पंचांग गणना के अनुसार लोग पद्म (पय्यां) व मेहल के वृक्ष की टहनी काटकर लाते हैं। 

पद्म की टहनी पर चीर बंधन उसे काटते वक्त ही होता है, जबकि फूलों से लकदक मेहल की टहनी पर लाल चीर वंदन तब होता है, जब गांव के पंचायती चौक में उसे विधि-विधान से स्थापित किया जाता है। यह होलिका का प्रतीकात्मक स्वरूप है। इसी दिन या इससे एकाध दिन पूर्व बांस का ध्वज बनाकर उसकी होलिका के साथ प्राण-प्रतिष्ठा की जाती है। इस पर बंधने वाली ध्वज पताका का रंग सफेद होता है।

चीर बंधन के साथ शुरू होती है होली 

गढ़वाल में होली का प्रारंभ फाल्गुन शुक्ल एकादशी से हो जाता है। परंपरा के अनुसार इस दिन पय्यां, मेहल या चीड़ की टहनी पर विधि-विधान पूर्वक चीर (रंग-बिरंगे कपड़ों के कुछ टुकड़े) बांधी जाती है। द्वादशी के दिन इस चीरबंधी टहनी को काटकर एक निश्चित स्थान पर स्थापित किया जाता है और पूर्णिमा तक नित्य उसकी पूजा की जाती है। चीरबंधन के दिन से ही गांव के बच्चों की टोली (होल्यार) होली मनाना शुरू कर देती है। जब होल्यार किसी घर में प्रवेश करते हैं तो गाते हैं, 'खोलो किवाड़ चलो मठ भीतर, दरसन दीच्यो माई अंबे झुलसी रहो जी। तीलूं को तेल, कपास की बाती, जगमग जोत जले दिन राती। झुलसी रहो जी...। ' जब होल्यारों की टोली को इनाम (पैसा) मिलता है, तब वह इस आशीर्वाद गीत को गाते हुए दूसरे घर की ओर बढ़ती है- 'हम होली वाले देवें आशीष, गावें-बजावें देवें आशीष। बामण जीवे लाखों बरस, बामणि जीवें लाखों बरस। जिनके गोंदों में लड़का खिलौण्या, ह्वे जयां उनका नाती खिलौण्या। जी रयां पुत्र अमर रयां नाती, जी रयां पुत्र अमर रयां नाती। होली का दान सबसे महान, होली का दान स्वर्ग समान। हम होली वाले देवें आशीष, गावें-बजावें देवें आशीष। ' 

ढलती उम्र में युवावस्था की याद दिलाती है होली 

पहाड़ में होली गायन गणेश वंदना 'सिद्धि को दाता विघ्न विनाशन गणेश ' से शुरू होता है। द्वादशी से रंग राग शुरू हो जाता है। 'मत जाओ पिया होली आई रही ' जैसे गीत गाकर जहां नायिका पति को परदेश जाने से रोकती है, वहीं 'ठाड़ी जो हेरू बाट, म्यार सैंय्या कब आवे ' जैसे विरह की पीड़ा व्यक्त करते गीतों में होली का यह उत्साह चरम पर चला जाता है। देखा जाए तो पहाड़ों में होली ढलती उम्र में किसी भी व्यक्ति को युवावस्था की याद दिलाकर उसे अपने मोहपाश में जकड़ लेती है।

होली गीतों में शिव का आह्वान 

गढ़वाल के नृत्य गीतों में ब्रज के गीतों का गढ़वालीकरण ज्यादा हुआ है। इन होली गीतों की कई विशेषताएं ध्यान देने लायक है। मसलन, यहां होली गीतों में शिव का आह्वान हुआ है, जो मैदानी होली में नहीं दिखता। महिलाओं के होली गायन की यहां अलग ही रीत है, जो स्वांग परंपरा के रूप में परिलक्षित होती है। इसके पीछे पहाड़ से पुरुषों का सामूहिक पलायन भी एक बड़ा कारण है। स्वांग परंपरा में विरह, रोमांस और पीड़ा है। 

कभी बड़े याकूब करते थे होली गायन 

अल्मोड़ा में होली गायन की जिस शास्त्रीय परंपरा ने जड़ पकड़ी, उसमें मुस्लिम गायकों का बड़ा योगदान रहा है। पौड़ी में भी होली गायन कभी बड़े याकूब केनेतृत्व में हुआ करता था, वहीं वर्ष 1935 में श्रीनगर की होली बैठकों में ईसाइयों के भाग लेने का जिक्र आता है। हालांकि, समय के अंतराल में जीवन शैली के साथ पर्व-त्योहार और उन्हें मनाने के तौर-तरीके भी बदल जाते हैं। यही वजह है कि जिस मदनोत्सव से होली की शुरुआत मानी जाती है, आज की होली उसकी परंपराओं को भी बरकरार नहीं रख पाई। बावजूद इसके आज भी ग्रामीण जीवन की सबसे ईमानदार छवि होली में ही दिखाई देती है। 

आंतरिक ऊर्जा में भी छिपे हैं रंग 

होली मनुष्य का परमात्मा से एवं स्वयं से स्वयं के साक्षात्कार का पर्व है। होली रंगों का त्योहार है। रंग सिर्फ प्रकृति और चित्रों में ही नहीं, हमारी आंतरिक ऊर्जा में भी छिपे होते हैं। इसे हम आभामंडल कहते है। हमारे जीवन पर रंगों का गहरा प्रभाव होता है और हमारा चिंतन भी रंगों के सहयोग से ही होता है। हमारी गति भी रंगों के सहयोग से ही होती है। हमारा आभामंडल, जो सर्वाधिक शक्तिशाली माना गया है, वह भी रंगों की ही अनुकृति है। पहले व्यक्ति की पहचान चमड़ी और रंग-रूप से होती थी, लेकिन आज वैज्ञानिक दृष्टि विकसित होने से व्यक्ति की पहचान त्वचा की जगह आभामंडल से होती है। इस तरह होली महज आमोद-प्रमोद का ही नहीं, बल्कि अध्यात्म का भी अनूठा पर्व है। 

पुरुषार्थ की प्रतीक है होली 

होली एवं उससे जुड़ी वसंत ऋतु, दोनों ही पुरुषार्थ के प्रतीक हैं। इस अवसर पर प्रकृति सारी खुशियां स्वयं में समेटकर दुल्हन की तरह सजी-संवर जाती है। पुराने की विदाई होती है और नए का आगमन होता है। पेड़-पौधे भी इस ऋतु में नया परिधान धारण कर लेते हैं। वसंत का मतलब ही है नया। नया जोश, नई आशा, नया उल्लास और नई प्रेरणा- यह वसंत का महत्वपूर्ण अवदान है और इसकी प्रस्तुति का बहाना है होली जैसा अनूठा एवं विलक्षण पर्व। 

ऐसे बनते हैं प्राकृतिक रंग 

  • नीला: नीले गुड़हल के फूल को पीसकर इसे पानी में मिला लें, नीला रंग तैयार। नीला गुलाल बनाने के लिए नीले गुड़हल के फूल को सुखाकर उसका पाउडर बना लें। 
  • लाल: चुकंदर, अनार के छिलके, टमाटर या गाजर को पीसकर पानी में मिला लें, लाल रंग तैयार। लाल गुलाल बनाने के लिए गुलाब की पंखुडिय़ों या लाल चंदन को पीसकर पाउडर बना लें। 
  • नारंगी: नारंगी रंग बनाने के लिए टेसू (पलाश) के फूल को पीसकर उसको पानी में मिला लें। जबकि, नारंगी गुलाल बनाने के लिए पलाश के फूल का पाउडर चंदन के पाउडर में मिला लें। 
  • पीला: पीला रंग बनाने के लिए हल्दी या गेंदे के फूलों को पीसकर पानी में मिला लें। पीला गुलाल बनाने के लिए हल्दी को उसकी दोगुनी मात्रा में बेसन अथवा मुल्तानी मिट्टी के साथ मिला लें। 
  • हरा: धनिया या पालक के पत्तों को पीसकर पानी में मिला लें। जबकि, हरा गुलाल बनाने के लिए मेंहदी के पाउडर को समान मात्रा में आटे के साथ मिला लें। 
  • बैंगनी: चुकंदर को बारीक काटकर रातभर पानी में भिगोकर रखें। अगली सुबह उसे उबाल कर छान लें और इसका रस निकाल लें। जामुन को पीसकर भी बैंगनी रंग तैयार किया जा सकता है। 
  • काला: काले अंगूर के बीज निकालकर अच्छी तरह से पेस्ट बना लें। फिर इसको पानी में अच्छी तरह से मिला लें। 
  • गुलाबी: चुकंदर को पानी में उबालकर रानी रंग और आधा लीटर पानी में छिले हुए 10 प्याज को मिलाकर उबालने से गुलाबी रंग बनता है। 

होली के शुभ मुहूर्त 

  • होलिका दहन : 20.57 से 00.28 बजे तक (20 मार्च) 
  • भद्रा पूंछ- 17.23 से 18.24 बजे तक 
  • भद्रा मुख : 18.24 से 20.07 बजे तक 
  • पूर्णिमा तिथि आरंभ : 10.44 बजे (20 मार्च) 
  • पूर्णिमा तिथि समाप्त : 07.12 बजे (21 मार्च) 
  • रंगों की होली : 21 मार्च 

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